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१५वी, १६वीं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के प्राचार्य, भट्टारक और कवि
४६६ प्रम्हहं पसाएणभव-दह-कयंतस्स; ससिपह जिणेवस्स पडिमा बिसुद्धस्स।
काराविया मई जि गोवायले तुंग, उडुचायि णामेण तित्यम्मि सुहसंग । हेल्हा ने उस समय अपनी त्यागवृत्ति का क्षेत्र बढ़ा लिया था और ग्यारह प्रतिमाधारी उत्कृष्ट थाय . के रूप में प्रात्मसाधना करने लगे थे।
ग्रन्थ की पाद्यन्त प्रशस्ति में कवि ने तोसउ साह के वंशका बिस्नत परिचय दिया है जिसमें उनके परि. वार द्वारा सम्पन्न होने वाले धार्मिक कार्यों का परिचय मिल जाता है । कौवने तासउ साहू का उल्लेख करते हुए उन्हें जिन चरणों का भक्त, पंचइन्द्रियों के भोगों से विरक्त, दान देने में तत्पर, पाप से शौकत-भय-भीत और तत्त्वचिन्तन में सदा निरत बतलाया है । साथ ही यह भी लिखा है उसकी लक्ष्मी दुखी जनों के भरण-पोषण में काम
आती थी। वाणी श्रुत का अवधारण करती थी। मस्तक जिनेन्द्र को नमस्कार करने में प्रवृत्त होता था। वह शुभमती था, उसके संभाषण में कोई दोष नहीं होता था। चित्त तत्त्व विचार में निमग्न रहता था और दोनों हाथ जिन-पूजा-विधि से सन्तुष्ट रहते थे।
जो णिच्चं जिण-पाय-कंज मसलो जो णिच्च दाणेरदो। जो पंचेदिय-भोय-भाष-बिरदो जो बितए संहिदो। जो संसार-महोहि-पावन-भिदो जो पायदो संकिदो। एसो पंदउ तोसडो गुणदो सत्तत्थ बेईचिरं ॥२ लच्छी जस्स बुहोजणाणभरणे बाणी सुयं धारिणे। सीस सन्नई कारणे सुभमई दोसं ण संभासणे। चित्-तत्त्व-वियारणे करजुयं पूया-विही संददं ।
सोऽयं तोसउ साहु एत्थ धवलो संवो भूयले ॥३ हिसार के अग्रवाल वंशी साहु नरपति के पुत्र साहु वील्ला, जो जैनधर्मी निष्पाप तथा दिल्ली के बादशाह फीरोजशाह तुग़लक द्वारा सम्मानित थे।
संघाधिप सहजपाल ने, जो सहदेव का पुत्र था, जिनेन्द्रमूर्ति की प्रतिष्ठा करवाई थी। साहू सहजहाल के पत्र में गिरनार की यात्रा का संघ भी चलाया था, और उसका सब व्यय भार स्वय वहन किया था। ये सब ऐतिहा. सिक उल्लेख महत्वपूर्ण हैं । और अग्रवालों के लिये गौरवपूर्ण हैं।
कवि ने प्रशस्ति में काप्ठा संघ की भट्टारक परम्परा का इस प्रकार उल्लेख किया है-देवसेन, विमलसेन, धर्मसेन, भावसेन, सहस्र कीति, गुणको नि (सं० १४६८ से १४८१) यश: कीति १४८ से १५१०, मलयकीर्ति १५०० से १५२५, गुणभद्र १५२० से १५४०)।
कविने अपने से पूर्ववर्ती निम्न साहित्यकारों का उल्लेख किया है-चउमह, स्वयंभू, पुण्यदन्त और वीर कवि । कवि ने इस ग्रन्थ से पूर्व रची जानेवाली इन रचनाओं का नामोल्लेख किया है
पासणाहचरिउ, मेहेसरचारिज, सिद्धचकमाहप्प, वलहएचरिउ, सुदंसणचरिउ और धणकुमारचरिउ ।
सकौशलचरितमें ४ संधियां और ७४ कड़वक है। पहली दो संधियों में कथन क्रमादि की व्यवस्था व्यक्त करते हर तीसरी संधि में चरित्र का चित्रण किया है। चौथी संधि में चरित्र का वर्णन करते हए उन्धकोटी का काव्य मय वर्णन किया है। किन्तु शैली विषयवर्णनात्मक ही है । कवि ने इस खण्ड-काव्य में सुकौशल की जोवनगाथा को प्रङ्कित किया है कथानक इस प्रकार है :
इक्ष्वाकु वंश में कीर्तिधर नाम के प्रसिद्ध राजा थे। उन्हें उल्कापात के देखने से वैराग्य हो गया था, मतएव वे साधजीवन व्यतीत करना चाहते थे। परन्तु मंत्रियों के अनुरोध से पुत्रोत्पत्ति के समय तक गही जोवन व्यतीत करने का निश्चय किया। कई वर्षों तक उनके कोई सन्तान न हुई। उनकी रानी सहदेवी एक दिन जिन मन्दिर गई। वहां जिन दर्शनादि क्रिया सम्पन्न कर उसने एक मुनिराज से पूछा कि मेरे पुत्र कब होगा? तब साधु ने कहा की तुम्हारे एक पुत्र अवश्य होगा, परन्तु उसे देखकर राजा दीक्षा ले लेगा, और पुत्र भी दिगम्बर साधु को देखकर साध बन जायगा। कुछ समय पश्चात् रानी के पुत्र हुना। रानी ने पुत्रोत्पत्ति को गुप्त रखने का बहुत प्रयत्न किया;
पापा