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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास २ किन्तु राजा को उसका पता चल गया और राजा ने तत्काल ही राज्य का भार पुत्र को सोंप कर जिन दीक्षा ले लो | राजा ने पुत्र के शुभ लक्षणों को देखकर उसका नाम सुकौशल रक्ता रानी को पति वियोग का दुःख असह्य था। साथ ही पुत्र के भी साधु हो जाने का भय उसे यात किये हुए था युवावस्था में उसका विवाह ३२ राज कन्याओं से कर दिया गया और भोग विलासमय जीवन बिताने लगा। उसे महल से बाहर जाने का कोई अधिकार न था । माता सदा इस बात का ध्यान रखती थी कि पुत्र कहीं किसी मुनि को न देख ते। अतएव उसने नगर में मुनियों का माना निषिद्ध कर दिया था। ૪૭૦ एक दिन कुमार के मामा मुनि कीर्तिधवल नगर मे आये, किन्तु उनके साथ अच्छा व्यवहार न किया गया। जब राजकुमार को यह ज्ञात हुआ, तो उसने राज्य का परित्याग कर उनके समीप ही साधु दीक्षा लेकर तप का अनुष्ठान करने लगा। माता सहदेवो पुत्र वियोग से अत्यन्त दुखी हुई और बार्त परिणामों से भर कर व्याघ्री हुई। एक दिन उसने अत्यंत भूखी होने के कारण पर्वतपर ध्यानस्थ मुनि सुकोशल को ही खा लिया। सुकौशल ने समताभाव से कर्म कालिमा नष्ट कर स्वात्मलाभ किया। इयर मुनि कोविल ने उस व्याधी को उपदेश दिया जिसे सुनकर उसे जाति स्मरण हो गया और धन्त में उसने सन्यास पूर्वक शरीर छोड़ा और स्वर्ग प्राप्त किया, कीर्तिधवल भी अक्षय पद को प्राप्त हुए । कविने यह ग्रंथ अग्रवाल वंशी साहू आना के पुत्र रणमल के अनुरोध से बनाया था। कवि ने इस ग्रन्थ को वि० सं० १४९६ में माघ कृष्ण दशमी के दिन ग्वालियर में राजा डूंगरसिंह के राज्य में समाप्त किया ।" साम चरिउ (सम्मत उमर) इस ग्रन्थ में छह संधियां हैं, जिनमें धावकाचार का कथन करते हुए सम्यक्तोत्पादक सुन्दर कथाओं का संयोजन किया है। ग्रंथ को अन्तिम पुष्पिका में 'सम्मत उमुह' का नाम ग्रन्थ कार ने स्वयं दिया है : इस सरिसारिए संदसण पमूह सुद्ध गुण भरिए सिरि पंडित रह बलिए सिरि महाभव्य सेठ साहू सुय साहू संपादिव कुमराज अणुमणिए सम्मत उमुद्द नाम छट्टो संधि परिषी समतो ।" ग्रन्थ के आदि में कवि ने तह सावय चरिउ भणेहुसत्य वाक्य द्वारा श्रावकाचार कहने का उल्लेख किया । इससे स्पष्ट है कि कर्ता ने ग्रन्थ के दोनों नाम दिये हैं। यद्यपि ग्रन्थ में श्रावकाचार का कोई खास कथन नहीं किया, किन्तु सम्यक्त्वोत्पादन सुन्दर धाउ कथाएं पंक्ति की है। ये कथाएं संस्कृत की सम्यक्तकौमुदी में भी ज्यों की त्यों पाई जाती हैं। उन में भाषा-भेद अवश्य विद्यमान है। साहु टेक्कणि ने इसके बनाने की कवि से प्रेरणा की थी। और वही ग्वालियर के गोलाण्डान्वची सेउ के पुत्र कुशराज को कवि के समीप ले गया और उनका कवि से परिचय कराया । श्रतएव वह ग्रन्थ रचना में प्रेरक है । साहू और कवि रघू ने कुशराज की अनुमति से ग्रन्थ की रचना की है। कुशराज मूलसंघ के अनुयायी थे । इसलिये कवि ने मूलसंघ के भट्टारक पद्मनन्दी शुभचन्द्र और जिनचन्द्र का उल्लेख किया है। १. सिरिचिक्कम समयंवराति बहुत दुमका। चउदह सय संवार वष्ण, छण्णव अहिय पुरं जाय पुण्ा । माह बुजिहि दहनी रिक्स उमप दियर पोरादिविरि २. मूल सम्म । सुरत| वायु परिणतपधार पंजा ह भडारत । पुणु सिहाल मंडावा जग-स जि का पंचादिमंध दिया। सह बंभरोह परिणहि दिव्यचारिण उपाय विहि सरसत्याहि बाल सिरि जिराचंद भारत मुवि तहु पय-पयरुह वंदिवि कइवइ । । - जैन ग्रन्थ प्रशस्ति० श० २, पृ० ७२ शवचरित्र प्रशस्ति
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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