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________________ ७६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २ से उसका अन्तःकरण बिमल एवं सर्वथा अदापण बना रहता है। __इस तरह महामुनि कुन्दकुन्द नगर से वाह्य उद्यानी, दुर्गम अटवियों, सघन वनों, तरु कोटरों, नदी पुलिनों गिरि शिखरों, पार्वतीय कन्दरामो में तथा भशान भूमियों (मरघटों) में निवास करते थे। जहां अनेक हिंसक जाति-विरोधी जीवों का निवास रहता था। शीत उष्ण डांस, मच्छर प्रादि को अनेक असह्य वेदनाओं को महते हुए भी वे अपने चिदानन्द स्वरूप से जरा भी विचलित नहीं होते थे । आवश्यक क्रियाओं में प्रवृत्त होते हुए भी वे महामुनि अपने जान दर्शन चारित्र रूप आम-गणों में स्थिर रहने के लिये एकान्त प्राशुक स्थानों में प्रात्म समाधि के द्वारा उस निजानन्द रूप परमपीयूष का पान करते हुए प्रात्म-विभोर हो उठते थे। परन्तु जब समाधि को छोड़कर ससारस्थ जीवों के दुःखों और उनकी उच्च नीच प्रवृत्तियों का विचार करते, उसी समय उनके हृदय में एक प्रकार की टीस एवं बेदना उत्पन्न होती थी, अथवा दया का स्रोत बाहर निकलता था। चारण अदि मौर यिदेह गमन इस तरह सम्यक तप के अनुष्ठान से आचार्य कुन्दकुन्द को चारण ऋद्धि की प्राप्ति हो गई थी जिसके फलस्वरूप वे पृथ्वी से चार अगुल ऊपर अन्तरिक्ष में चला करते थे । प्राचार्य देवसेन के 'दर्शनसार' से मालूम होता है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द विदेह क्षेत्र में सीमधर स्वामी के समवशरण में गए थे और वहाँ जाकर उन्होंने दिव्य ध्वनि द्वारा आत्मतत्त्व रूपी सुधारस का साक्षात पान किया था। और वहां से लौटकर उन्होंने मुनिजनों के हित का मार्ग बतलाया था। श्रवणबेलगोला के शिलालेखों से तो यह भी ज्ञात होता है कि उन्होंने चरणऋद्धि की प्राप्ति के साथ, भरत क्षेत्र में शतकी प्रतिष्ठा की थी-उन्होंने उसे समुन्नत बनाया था। इसमें कोई सन्देह नहीं कि जब तपश्चरण की महत्ता से मात्मा से निगड कर्म का बन्धन भी नष्ट हो जाता है तब उसके प्रभाव से यदि उन्हें चारणऋद्धि प्राप्त हो गई तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। क्योंकि कुन्दकुन्द महामुनिराज थे, अतः जन जैसे असाधारण यक्ति के सम्बन्ध में जिस घटना का उल्लेख किया गया है उसमें सन्देह का कोई कारण नहीं है। और देवसेनाचार्य के उल्लेख से इतना तो स्पष्ट ही है कि विक्रम सं० १६० में उनके सम्बन्ध में उक्त घटना प्रचलित थी। अध्यात्मवाव और प्रात्मा का त्रैविध्य अध्यात्मवाद वह निर्विकल्प रसायन है। जिसके सेवन अथवा पान से प्रात्मा अपने स्वानुभवरूप प्रात्मरज में लीन हो जाता है, और जो प्रात्म सुधारस की निर्मल धारा का जनक है। जिसकी प्राप्ति से प्रात्मा उस ग्रात्मा नन्द में निमग्न हो जाता है, जिसके लिये वह चिरकाल से उत्कंठित हो रहा था। आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रात्मानुभव की उस विमल सरिता में निमग्न होकर भी, संसारी जीवों की उस यात्मरस शून्य अनात्मरूप मिथ्या परिणति का १, सुषहरे तर हिट्ठ उजागो तह माण वासे वा।। गिरि-गुह गिरिसिहरे वा भीमवणे अहव वसिते वा ।। -वोध प्राभूत २. रजोभिरस्पष्टतमत्वमन्तर्बाह्य ऽपि संव्यंजयितु' यतीशः । रजः पदं भूमितलं विहाय चचार मन्ये चतुरंगुलं सः ।। -श्रवण वेल गोल लेख नं० १०५ ३. जह पपगंदिरशाहो सीम धरसामि-दिगणाणेरा। ण वि योहा तो समगा कहं सुमग पगाणंति ।। -दर्शनसार ४. वयो विभुवि न कैरिह कौण्डकुन्दः कुन्दप्रभा प्रायकोति विभूषिताशः । यश्चारुच्चारण-कराम्बुजचंचरीश्चके श्रुतम्य भरते प्रयत: प्रनिमामः ।। -ववरण लेख नं.५४
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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