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________________ ग्यारसी और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, और प्राचार्य वे सर्वज्ञशासन रूपी आकाश के शरत्कालीन पूर्णमासी के चन्द्रमा थे। और वे तत्कालीन गांगेय और भोज देवादि समस्त नुप पुगवों से पूजित थे। इनमें गंगेय देव तो कलचुरि नरेश ज्ञात होते हैं जो कोक्कल (द्वितीय) के पश्चात सन् १०१६ के लगभग सिंहासनारूढ़ हुए। और सन् १०३८ तक राज्य करते रहे हैं और भोज देव वही धारा के परमरावंशी राजा हैं, जिन्होंने सन् १००० से सन् १०५५ (वि० सं० १११२) तक मालवा का राज्य किया है। पोर जिनका गुजरात के सोल की राजाओं से अनेक बार संघर्ष हुआ। इससे श्रुतकीर्ति का समय सन् १०८० से १०१५ तक हो सकता है। कवि धनपाल कवि धनपाल 'धर्कट वंश' नामक वैश्य कुल में उत्पन्न हया था। इसके पिता का नाम माएसर और माता का नाम धनसिरि (धनश्री) देवी था । प्रस्तुत धर्कट या धक्कड वंश प्राचीन है। यह वंश १०वीं शताब्दी से १३वीं शताब्दी तक बहुत प्रसिद्ध रहा है। और इस वंश में अनेक प्रतिष्ठित श्री सम्पन्न पुरुष और अनेक कवि हुए हैं। भविष्य दत्त कथा का कर्ता प्रस्तुत धनपाल पावन वंश में उत्पन्न हुआ था। जिसका समय १०वीं शताब्दी है। धर्म परीक्षा (सं ) के कर्मा गितमीस उप्रान हासे । जम्बूस्वामी चरित्र के कर्ता वीर कवि (सं० १०७६) के समय मालव देश में धक्कडवंश के मघ सुदन के पूत्र तक्खड़ श्रेष्ठी का उल्लेख मिलता है जिनकी प्रेरणा से जायू स्वामी चरित्र रचा गया है । सं० १२८७ के देलबाडा के तेजपाल वाले शिला लेख में 'धर्कट' जाति का उल्लेख है। इससे इस वंश की महत्ता और प्रसिद्धि का सहज ही बोध हो जाता है। धनपाल अपभ्रश भाषा के अच्छे कवि थे और उन्हें सरस्वति का वर प्राप्त था जैसा कि कवि के निम्न वाक्यो से-"चितिय धणवालि वणिवरेण, सरसह बहुल महावरेण ।"-प्रकट है। कविका सम्प्रदाय दिगम्बर था। यह उनके-'भंजि विजेरा यिंदवरि लायउ।' (संधि ५-२०) के वाक्य से प्रकट है। इतना ही नहीं किन्तु उन्होंने १६ स्वर्ग के रूप में अच्युत स्वर्ग का नामोल्लेख किया है । यह दिगम्बर मान्यता है। प्राचार्य कुन्दकुन्द की मान्यतानुसार सल्लेखना को चतुर्थ शिक्षाव्रत स्वीकार किया है । कवि के अष्ट मूल गुणों का कथन १०वीं शताब्दी के प्राचार्य अमृतचन्द्र के पुरुपार्थ सिद्धय पाय के निम्नपद्य से प्रभावित है : मचं मांस लौद्रं पञ्चोदुम्बर फलानि यत्नेन । हिसा व्युपरति काम मोक्तव्यानि प्रथममेव ।।(३-६१) 'महु मज्ज मंसु पंचु वराई, खजंति ण जम्मतर सयाई ।। १. विद्वान्समस्तशान्त्राथविचार चतुराननः । शिरथचन्द्र कराकार कीर्तिव्याप्त जगत्रयः ।।१३ व्याख्यातृत्व-कवित्वादि-गुरगहसकमानसः । सर्वज्ञशासनाकाश शरत्याबण चन्द्रमाः ॥१४ गांगेय भोजदेवादि समस्त नपपुङ्गवः । पूजितोत्कृष्टपादार विन्दो विकनस्तकल्मषः ।।१५ –श्रीचन्द्र कथाकोष प्रशस्ति-जैनथ-प्रशस्ति सं०भा० २५०७ २. धक्कड बरिणसि माएसर हो समुभाषिण। धरणसिरि देवि सुएण विरइउ सरसइ संभविण ।। (अन्तिम प्रशस्नि) ३. अह मालवम्मि वरण-कण दरसी, नमरी नामेण सिंधु-वरिसी । तहिं धक्का-बग्गै वंश तिलउ, महसूयण संदणु गुगणिलउ । गामेण सेट्ठि तक्खडु बसई, जस पडहु जासु तिहपरिण रसई ॥ (जंयू० प्रशस्ति) ४. मद्य मांस मजुत्यागः सहोवुम्बर एञ्चकः । अष्टावे ते गृहस्थानामुक्ता मूलगुरणाः श्रुतौ ॥ –(उपासका० २१, २७०) महु मज्जपंस विरई चत्ता ये पुण जंबराण पंचाह । अट्टेदे मूलगुणाति फुड, देसविल्यम्मि । (-गा० ३५६) तत्रादी अधज्जैनी माज्ञा हिंसामपासितुम् । मद्य मांस-मधु त्युज्झेत् पंचक्षीरी फलानि च ॥ -सा० २-२
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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