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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ कीर्तिवर्मा यह मुनि देवचन्द का शिष्य था। यह देव चन्द संभवत: वह हैं जो राघवपाण्डवीय काव्य के कर्ता श्रुतकीति विद्य देव के सम सामयिक थे (श्रव० लेख नं. ४०)। यह चालुक्य वंशीय (सोलको) लोक्य मल्ल को पुत्र था, इसने सन् १०४४ से १०६ तक राज्य किया है । इसके चार पुत्र थे, जयसिंह, विष्ण बर्बन, विजयादित्य और कीर्तिवर्मा। इनकी माता का नाम केतलदेवी था, जो जैन धर्म निष्ठा थी, वह जिन भक्ति से ओत-प्रोत थी, उसने भक्तिबश सैकड़ों जिन मन्दिर बनवाए थे। तथा जैनधर्म की प्रभावना के अनेक कार्य किये थे। उसके बनवाए हए जिन मन्दिरों के खण्डहर और उनमें प्राप्त शिलालेख उसकी कोति का स्मरण कराते हैं। कौतिवर्मा के ग्रन्थों में से इस समय केवल एक ही 'गोवद्य' नाम का ग्रन्थ प्राप्त है, जिसमें पशुनों के विविध रोगों और उनकी चिकित्सा का वर्णन है। इस ग्रन्थ के एक पद्य में कवि ने अपने आपको कीर्तिचन्द्र, बंरिकरिहरिकन्दर्पमति, सम्यक्त्वरत्नाकर, बुधभव्य बान्धव, कविताब्धिचन्द्र और कीर्तिविलास प्रादि विशेषणों से उल्लेखित किया है 'वैरिकरिहरि' विशेषण से ज्ञात होता है कि वह एक वीर योद्धा था । मुनि पसिंह उन्होंने अपना कोई परिचय नहीं दिया। किन्तु अपने ग्रन्थ 'णाणसार' (ज्ञानसार) को अन्तिम गाथा में बताया है नियने मन के प्रतिबोधार्थ गौर, परमात्मा म्वरूप की भावना के निमित्त श्रावणशुक्ला नवमी वि० सं० १०८६ सन् १०२६ में अंबक नगर (अंबड नगर) में ग्रन्थ की रचना की है। ग्रन्थ की गाथा संख्या ६३ है और उसे ७४ श्लोक परिमाण बतलाया गया है। ग्रन्थ में ध्यान विषय का कितना ही उपयोगी वर्णन है । ३६ वी गाथा में बतलाया है कि जिस प्रकार पाषाण में सुवर्ण और काष्ठ में अग्नि दोनों बिना प्रयोग के दिखाई नहीं पड़ते उसी प्रकार ध्यान के बिना आत्मा का दर्शन नहीं होता और इससे ध्यान का महात्म्य, एवं लक्ष्ण स्पष्ट जान पड़ता है। ग्रन्थ स्वपर-सम्बोधक है। ७ वें पद्य में बतलाया है कि जिस तरह दाढ और नखरहित सिंह गजेन्द्रों का हनन करने में समर्थ नहीं होता। उसी तरह ध्यान के बिना योगी कर्म के क्षपणे में समर्थ नहीं होता । प्रतः कर्मवन को दग्ध करने के लिए ध्यान की अत्यन्त आवश्यकता है, ध्यान एकान्त स्थान में ही संभव है, मन की चंचलता ध्यान में बाधक है। मुनि पद्मसिंह विक्रम की ११ वीं शताब्दी के विद्वान हैं। पप्रनन्दि मलभारि मूलसंघ, देशीयगण, पुस्तगच्छ और कौण्डकुन्दान्वय के विद्वान थे। उन्होंने पार्श्वनाथ की मूर्ति की स्थापना की थी। सन् १०८७ में जब चालुक्य सम्राट् त्रिभुबनमल्ल कल्याण से राज्य कर रहे थे। उस समय चालक्य विक्रम वर्ष प्रभव संवत्सर की पुण्य प्रमावस्या रविवार को उत्तरायण संक्रान्ति के अवसर पर पूण्डर के महामण्डलेश्वर अत्तरस ने तिकप्प दण्ड नायक को पार्श्वनाथ की पूजा के लिये भूमि,उद्यान और कुछ अन्य प्राय के साधनों का दान दिया था 1 अतः पप्रनन्दि मलधारि का समय सन् १०८७ (वि० सं० ११५४) है। चन्द्रप्रभाचार्य-शक सं०६६५ सन् १०७२ के एक स्तम्भ लेख में भाद्रपद कृष्णा शनिवार के दिन चन्द्रप्रभाचार्य के स्वर्गवास का वर्णन है। -जैन लेख सं० भा०५१०३२ श्रुतकीति-कुन्दकुन्दान्वय देशीगण के विद्वान आचार्य श्री कीति के शिष्य थे। यह अपने समय के बड़े विद्वान, शास्त्रार्थ विचारज्ञ, व्याख्यातृत्व, और कवित्वादि गुणों में प्रसिद्ध थे । इनकी कीर्ति जगत्त्रय में व्याप्त थी। १. रिणयमण पडिवोहत्यं परमसरुवस्स भावरण णिमित । सिरि पउमसिंह मुणिणा णिम्मबियं गाणसारमिरा ।।६१ सिरिविक्कमस्स कासे दशसम खासी जुर्यमि वहमाणे। साषण सिय णवमीए अंवय एयरम्मि कयमेयं ।। ६२ २. परिमाणं च सिलोमा पउहत्तरि हुँति गाणसारस्म । गाहाणं च तिसती सुललिय बंधे रहयारणं ।।६३ ३. रि० इ. ए. १६६०-६१ जैनलेख सं० भा० ५ पृ० ३४
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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