SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 317
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य २०५ किये हैं, इससे इतना तो स्पष्ट है कि ईसा को १२वीं और वि० को १३वीं शताब्दी में ज्ञानार्णव का खूब प्रचार हो गया था। हेमचन्द्राचार्य ने अपना योग शास्त्र स० १२०७ में बनाया है। उससे पूर्व नहीं। जब कि ज्ञानार्णव उससे बहुत पहले वन चुका था। ऐसी स्थिति में मो. शारक मेरों का मानानकार द्वारा उद्धृत करने का कोई प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। यद्यपि दोनों के पद्यों में बहुत कुछ साम्य है, उस साम्यता का कारण हेमचन्द्र के सामने योग विषयक अनेक ग्रन्थ बन चके थे। वे उनके सामने थे ज्ञानार्णव भी उनमें था। हेमचन्द्र को उनसे अवश्य साहाय्य मिला है । ज्ञानार्णव हेमचंद्रके सामने रहा है। ज्ञानार्णव में जैनेतर ग्रन्थों से योगविषयक जो पद्य लिये गये हैं। संभव है वे ग्रन्थ हेमचन्द्र को भी प्राप्त हुए हों, और ज्ञानार्णव से हेमचन्द्र ने भी सहयोग लिया हो तो क्या पाश्चर्य? पाटन के मंडार में ज्ञानार्णव की एक प्रति सं० १२८४ की लिखी हुई प्रति मौजूद है। जिसे जाहिणी प्रायिका ने किसी शुभचन्द्र योगी को प्रदान की थी। वह प्रति अन्य किसी प्रति से प्रतिलिपि की हुई है। क्योंकि ज्ञानार्णव उससे पूर्व बना हुआ था। और उससे बहुत पहले प्रचार में आ गया था। ऐसी स्थिति में उस प्रति को अन्य रचना के आस-पास समय की प्रति नहीं कहा जा सकता। और न उस पर से कोई निर्णय हो किया जा सकता है। हेमचन्द्र के ग्रन्थों पर अन्य साहित्यकारों के साहित्य का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता। दार्शनिक ग्रन्थों में प्रमाण मीमांसा के निग्रह स्थान के निरूपण और खण्डन के समूचे प्रकरण में और अनेकान्त में दिये पाठ दोषों के परिहार प्रसंग में प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्तण्ड का शब्दशः अनुसरण किया गया है। प्रमाण मोमांसा के प्रायः प्रत्येक प्रकरण पर प्रमेयरत्नमाला की शब्द रचना ने अपनी स्पष्ट छाप लगाई है। ऐसी स्थिति में यह कहना किसी तरह भी शक्य नहीं है कि हेमचन्द्र ने ज्ञानार्णव से कुछ नहीं लिया। इन्द्रकीति कुन्दकुन्दान्वय समूह मुखमंडन देशीयगण के विद्वान थे। इनकी अनेक उपाधियां थीं-श्री मदमहच्चरण, सरसिंहभृग, कोण्डकुन्दान्वय समूह मुखमंडन, देशीयगण कुमुदवन, को कलिपुरेन्द्र, लोक्य मल्ल, सदासर्रासकलहंस, कविजनाचार्य, पण्डित मुखाम्बुरुह चण्डमार्तण्ड सर्वशास्त्रश, कविकुमुदराज त्रैलोक्य मल्लेन्द्र कीतिहरि मूर्ति । इन विशेषणों से इन्द्र कौति की महत्ता का स्पष्ट बोध होता है। गंगराजा दुविौत द्वारा निर्मापित मन्दिर को इन्द्र कीति ने कुछ दान दिया था। यह शिलालेख कोगलि जिला बेल्लारी मैसूर का है जिसका समय शक सं०९७७ सन् १०५५ (वि० सं० १११२) हैं। (ई०ए०५५, १६२६ पृ०७४, इ० म० बेल्ला. १६६) केशवनन्वि बल गारगण मेघनन्दि भट्टारक के शिष्य थे। उस समय समस्त भुवनाश्रय, श्री पृथ्वी वल्लभ, महाराजाधिराज परमेश्वर, परम भट्टारक और सत्याथय कुल तिलक प्रादि अनेक उपाधियों के धारक त्रैलोक्यमल्ल के प्रवर्द्धमान राज्य में बनवासीपुर में महामण्डलेश्वर चामुण्डरायरस बनवासी १२००० पर शासन कर रहा था. तब बलिलगावे राजधानी में शक सं० १७० (सन् १०४८) सर्बधारी सम्वतसर ज्येष्ठ गवला त्रयोदशी प्रादित्यवार के दिन अष्टोपवासि भट्टारक को यसदि में पूजा करने के लिये, 'भेरुण्ड' दण्ड (माप) जिड्ड लिगे-सत्तर में प्राप्त धान (चावल) के क्षेत्र का दान केशवनन्दि को दिया। -जैन लेख सं०भा० २ पृ. २२१ कुलचन्द्रमुनि मूलसंघान्वय क्राणूरगण के परमानन्द सिद्धान्तदेव' के शिष्य थे। भुवनैकमल्ल के सुपुत्र ने जिस समय उनका राज्य प्रवर्धमान था। और जो बंकापुर में निवास करते थे और उन पादपोपजीवी चालुक्य पेर्माडे भवनक बीर उदयादित्य शासन कर रहे थे। तव भुवनैक मल्ल ने शान्ति नाथ मन्दिर के लिये उक्त कूलचन्द्र मनि को नागर खण्ड में भूमिदान दिया। नंकि यह शिलालेख शक सं० ६६६ सन् १०७४ (वि० सं० ११३१) का है । अत: उक्त मुनि ईसा की ११वीं और विक्रम की १२वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान हैं। १.जन लेख सं० भा०२५.. २६४-६५।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy