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________________ ३०४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ शुचि गुणयोगाच्छन कषायरजः क्षयापशमाद्वा । बंड़र्यमणि शिखाइव सनिर्ममं निष्प्रकम्पं च ।। यह पद्य रामसेन के तत्त्वानुशासन में निम्न रूप में उपलब्ध होता है शुचि गुण योगाच्छुकलं कषायरजः क्षयापशमाद्वा ।। माणिक्य शिखा-अदिदं सुनिर्मलं निष्प्रकम्पंच ।।२२२ इस पर कोई अर्थ मेद नहीं है, थोड़ा सा शब्द भेद अवश्य है। तत्वानुशासन के ४८वें पद्य का पूर्वार्थ भी ज्ञामार्णव के रहवें प्रकरण के २६वें श्लोक के पूर्वाध से ज्यों के त्यों रूप में मिलता है यथा "ध्यातारस्त्रिविधा ज्ञेयास्तेषां ध्यानन्यपि विधा" ज्ञाना० "ध्यातार स्विविधास्तस्मासेषां ध्यानान्यपि विधा" । तत्वानु रामसेन का समय मुख्तार श्री जुगल किशोर जी ने १० वीं शतावदी का चतुर्थचरण निश्चित किया है। अत: शुभचन्द्र उनके बाद के विद्वान हैं। योगसार के कर्ता अमित गति प्रथम, जो प्राचार्य नेमिषेण के शिष्य थे। उनके योगसार के नी व अधिकार का एक पच कानार्णव के ३६ वें प्रकरण के ४३ बें पद्य के बाद उक्त च रूप से पाया जाता है :-- येन येन हि भावेन युज्यते यंत्रवाहकः । तेन्तन्मयतां याति विश्वरूपो मणियथा ॥ ३९ ज्ञानार्णव येन ये नैव भावेन युज्यते यंत्रवाहकः । तन्मयस्तत्र तत्रापि विश्वस्पो मणियथा। योगसार ९-५१ अमितगति प्रथम के योगसार का यह पप हेमचन्द्र के योग शास्त्र में भी ज्यों के त्यों रूप में पाया जाता है। यह ज्ञानाणंव में उक्तं च रूप में दिया है। किन्तु योग शास्त्र में वह मुल में शामिल कर लिया गया है। इसी तरह ज्ञानार्णव का यह पद्य-सोऽयं समरसो भावस्तदेकी करणं मतं । प्रात्मा यदपृथक्वेन लोयते परमात्मनि ॥ योग शास्त्र में पाया जाता है । इसका पूर्वार्ध - तत्त्वा नुशासन१३७ में पाया जाता है । चूकि ज्ञानार्णव का मूल पद्य है, वह तत्त्वानुशासन के साहित्यिक अनुसरण एवं प्रभाव से परिलक्षित है। अमितगति द्वितीय ने अपना सुभाषितरत्न सन्दोह वि० सं० १०५० और संस्कृत पंच संग्रह १०७३ में बनाकर समाप्त किया है। इनसे दो पीढी पूर्व अमितगति प्रथमदए है, जिनका समय ११ वीं शताब्दी का प्रथम चरण हैं। इससे स्पष्ट है कि ज्ञानार्णव के कर्ता शुभचन्द्र का समय सं० ११२५ से ११३० के मध्यवर्ती है । अर्थात् वे विक्रम की १२ वीं शताब्दी के प्रथम चरण और ईसा की ११ वीं शताब्दी के अन्तिम चरण के विद्वान थे। नियमसार की पमप्रमभलधारी देव की वृत्ति में पृष्ठ ७२ पर ज्ञानार्णव के ४२ व प्रकरण का चौथा पद्य उद्धत है, जो शुक्लध्यान के स्वरूप का निर्देशक है : निष्क्रिय करणातीतं ध्यानधारणजितम् । अन्तर्मुखं च यहिचत तच्छुक्ल मिति पठ्यते ॥४ पच प्रभमलधारि देव का स्वर्गवास शक सं० ११०७ सन् ११८५ के २४ फरवरी सोमबार के दिन हुआ है। नियमसार को वृत्ति उससे पूर्व बन चुकी थी। नियममार को यह वृत्ति सन् १९८५ से पूर्व बनी है यदि उसका समय शक सं० ११०० मान लिया जाय तो सन् १९७८ में ज्ञानार्णव उनके सामने था। ज्ञानार्णव की रचना के बाद कम से कम १५-२० वर्ष उसके प्रचार-प्रसार में भी लगे हैं। ऐसी स्थिति में शुभचन्द्र के समय की उत्तरावधि पद्यप्रभ मलधारि देव का समय है। . यद्यपि १३ वीं शताब्दी के विद्वान पं० पाशाधर जी ने सं० १२८५ से पूर्व निर्मित इष्टोपदेश की टीका में ज्ञानार्णव के पद्य उक्तं च रूप से उक्त किये हैं। और मूलाराधना (भगवती प्रा० की टीका) में गाथा १८७ की टीका में ४२ वे प्रकरण के ४३ ३ पद्य से लेकर ५१ तक के पध 'उक्त च ज्ञानार्णव' विस्तेरण' वाक्य के साथ उद्धत
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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