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तारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
प्राचार्य सुमचंद्र शुभचन्द्र नामक के अनेक विद्वान् हो गए हैं । प्रस्तुत शुभचन्द्र ने अपनी कोई गुरु परम्परा नहीं दो, और न ग्रन्थ का रचनाकाल ही दिया है। अन्य में समन्तभद, देवनन्दी (पूज्यपाद) अकलंकदेव और जिनसेनाचाय का स्मरण किया है। जिनसेन की स्तुति करते हुए उनके वचनों को 'विद्य बन्दित' बतलाया है। विद्य एक उपाधि है जो सिद्धान्त चक्रवर्ती के समान सिद्धान्त शास्त्र के ज्ञाता विद्वानों को दी जाती थी। सिद्धान्त (भागम) व्याकरण और न्याय शास्त्र के ज्ञाता विद्वानों को विद्य उपाधि से विभूषित किया जाता रहा है। शुभचन्द्र ने जिनसेन के बाद अन्य किसी बाद के विद्वान का स्मरण नहीं किया। ग्रन्ध में आदिपुराण का पद्य भी दिया हुआ है।
कवि ने ग्रन्थ रचना का प्रयोजन स्पष्ट करते हुए लिखा है कि संसार में जन्म ग्रहण करने से उतान हुए दुनिवार क्लेशों के सन्ताप से पीड़ित में अपनी प्रात्मा को योगीश्वरों से सेवित ध्यानरूपी मार्ग में जोड़ता है। कवि ने अपना प्रयोजन संसार के दुखों को दूर करना बतलाया है :
भष्प्रभवर क्लेशसन्ताप पीड़ितम् ।
योजयाम्यहमात्मानं पथियोगोन्द्रसेविते ॥१८॥ कविने लिखा है कि यह ग्रन्थ मैंने कविता के अभिमान से या जगत में कीति विस्तार की इच्छा से नहीं बनाया किन्तु अपने ज्ञान की वृद्धि के लिए बनाया है :
कवित्वाभिमानेन न कीति प्रसरेच्छया।
कृतिः किन्तु मवीयेयं स्वा बोधायेव केवलम् ॥१६॥ ज्ञानार्णव में ४२ प्रकरण हैं, जिनमें १२ भावना, पंच महावत और ध्यानादि का विस्तृत कयन किया गया है । मुद्रित रन्थ बहत कुछ अशुद्ध छपा है। ग्रन्थ में रचनाकाल न होने से ग्रन्थ के रचनाकाल के सम्बन्ध में अन्य साधनों से विचार किया जाता है। प्राचार्य शुभचन्द्र के इस ग्रन्थ पर पूज्यपाद के समाधितन्त्र और इष्टोपदेश का प्रभाव है। उनके अनेक पद्य ज्यों-के-त्यों रूप में और कुछ परिवर्तित रूप में पाये जाते हैं। अन्य अपने विषय का सम्बद्ध और वस्तु तत्त्व का विवेचक है। स्वाध्याय प्रेमियों के लिये उपयोगी है। इसपर प्राचार्य अमृतचन्द्र अमित गति प्रथम और तत्त्वानुशासन तथा जिनसेन के प्रादि पुराण का प्रभाव परिलक्षित है। जैसा कि निम्न विचारणा से स्पष्ट है :विचारणा ज्ञानार्णव के १६वें प्रकरण के छठवें पद्य के बाद उक्त च रूप से निम्न पद्य पाया जाता है :
मिथ्यात्यवेवरागादोषादयोऽपि षट् चव ।
चत्वारश्चकषायाश्चतुर्दशाम्यन्तरा ग्रन्थाः ॥ यह पद्य प्राचार्य अमुतनेन्द्र के पुरुषार्थ सिद्धचुपाय का ११६वां पद्य है। इससे स्पष्ट है कि शुभचन्द्र समतचन्द्र के बाद हुए हैं । अमृतचन्द्र का समय दशवीं शताब्दी है।
ज्ञानार्णव मुद्रित प्रति के पुष्ठ ४३१वें पांचवें पद्य के नीचे एक प्रार्या निम्न प्रकार दिया है-वह मल में शामिल हो गया है। किन्तु उसपर मूल के क्रम का नम्बर नहीं है । परन्तु सं०१६६६ को हस्त लिखित प्रति क पत्र ८९ पर इसे 'उक्त च' वाक्य के साथ दिया हुआ है।
१ जयन्ति जिनसेनस्य वाचास्त्रविद्यन्दिता. '
योगिभियंत्सगासाद्य सवलितं नारम निश्चये ॥१६ २ उक्तंच-अकारादि हकारान्तं रेफमध्यं सबिन्दुकम्। तदेव परमं तत्त्वं यो जानाति स तत्त्व वित् ॥
आवि पुराण २१-२३६