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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ के अनुरोध से बनाया था। टीका सुन्दर है और पद्यों के अर्थ को प्रकट करने वाली है । भ. श्रीचन्द्र और भागचन्द्र सूरि को भी इस पर टीका बतलाई जाती है । पर दे इतनी विशद नहीं हैं, केवल शब्दार्थ प्रकट करने वाली है। पं० प्राशाधर जो की इस टीका से स्पष्ट है कि भूपाल कवि की यह रचना उनसे पूर्व हो चुकी थो।
चतुर्विशति का दूसरा पद्य प्राचार्य गुणभद्र के उत्तरपुराण के पुष्पदन्त चरित्र में दिये हुए पद्य के साथ बहुत साम्य रखता है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि भूपाल' कवि ने उसे उत्तर पुराण से लिया हो। दोनों के पद्य नीचे दिये जाते हैं :
शान्तं वपुः श्रवणहारिवचश्चरित्रं सर्वोपकारि तव देव ततो भवन्तम् । संसारमारवमहास्थल रन्द्रसान्द्र छायामहीरहमिमे सुविधि श्रयामः ।।६१
उत्तर पु० ५५ पृ०७० शान्तं वपुः श्रवराहारिवचश्चरित्र सर्वोपकारि सव वेव ततः श्रुतज्ञाः । संसारमारवमहास्थल रुन्द्रसान्द्रच्छायामहीव्ह भवन्तमुपाश्रयन्ते ॥
-जिन चतुर्विशति का २ इस पद्य में द्वितीय और चतुर्थ चरण बदले हुए हैं। बाकी पद्य ज्यों का त्यों मिलता है इससे स्पष्ट है कि भूपाल कवि के सामने उत्तर पुराण रहा है। सुलोचना चरित्र के कता कवि देवसेन ने अपने से पूर्ववर्ती कवियों का उल्लेख करते हुए पुष्पदन्त के नामोल्लेख के साथ भूपाल का भी नाम दिया है। पुष्फयंत भूपाल-पहाणहि । इससे यह ज्ञात होता है कि भुपाल कवि ६ वों शताब्दी के वाद और १३ बों शताब्दी से पूर्व हुए हैं । सम्भव है कवि ११वीं या १२वीं शताब्दी के पूवाधं के विद्वान हों। इस सम्बन्ध में और विशेष अनुसन्धान को आवश्यकता है।
दामराज कवि दामराज-सार्वभौम त्रिभुवनमल्ल नरेभा (राज्यकाल ई० सन् १०७६ से ११२६) का गंगपेरमानडीदेव नामक सामन्त राजा था । और उसका नोक्कय हेगडे नाम का मन्त्री था। पहले यह कवि इसी मत्री कामाश्रित था । परंतु शिवमोग्ग तहसील में जो दशवा शिलालेख है, उसमें इसने अपने को सन्धि वैग्रहिक' मन्त्री लिखा है। इससे मालम होता है कि पीछे से इसने उक्त पद प्राप्त कर लिया होगा। गंगपेरमानडी देव ने बहुत से जिन मन्दिरों को प्रामादि दान किये थे, और उनके शासन कवि दामराज से लिखवाये थे। उक्त शासन लेखों के पद्यों से यह बात निःसंकोच कही जा सकती है कि वह उच्च श्रेणी का कवि था । यह ज्ञात नहीं हुमा कि इसने किसी स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना की है या नहीं। इसका समय सन् १०.५ के लगभग जान पड़ता है।
कन्ति कन्ति--यह स्त्री कवि थी। इसकी कविता बहुत ही मनोहारिणी होती थी। देवचन्द कवि के एक लेख से मालम होता है कि यह छन्द, अलंकार, काव्य, कोश व्याकरणादि नाना ग्रन्थों में कुशल थी बाहुबल नामक कवि ने अपने नागकमार चरित के एक पद्य में इसकी बहुत प्रशंसा की है और इसे 'अभिनव वाग्देवो' विशेषण दिया है। द्वार समुद्र के बल्लाल राजा विष्णु वर्धन की सभा में अभिनवपंप और कन्ति से विवाद हुआ था । अभिनयंप को दी हुई समस्या की पति की थी। अभिनवाप चाहता था कि कन्ति मेरी प्रशंसा करे-उसको की हई प्रशंसा को वह अपने गौरव का कारण समझता था । परन्तु वह पंप को प्रशंसा नहीं करती थी। कहा जाता है कि अन्त में कन्ति ने पंप को कविता की प्रशंसा करके उसे सन्तुष्ट कर दिया था।
१ "उपशमइव मूर्तिः पूतकीतिः स तस्मात्
जयति दिनवचन्द्र: सच्चकोरक चन्द्रः । जगदमृतसगर्भा: शास्त्र सन्दर्भ गर्भाः शुचि चरित सहिष्णीर्यस्य धिन्वन्ति वायः ।"
-जिन चतुर्विशति का टीका प्रशस्ति