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चारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विवान, आचार्य
दामनन्दी पनसोगे निवासी मुनियों में पूर्णचन्द्र मुनि के शिष्य दामनन्दि थे । यह लेख शक सं०१०२१ सन् १०६६ का है, इनके शिष्य श्रीधराचार्य थे । इनका समय ईसा को ११वीं सदी है। --जैन लेख सं० भा.२१०३५६
भूपाल कवि कवि ने अपने नामोल्लेख के सिवाय अपना कोई परिचय प्रस्तुत कबि भुपाल नहीं किया। और न उन्होंने यही सूचित किया कि यह जिन चतुर्विभातिका स्तोत्र कहाँ और कब बनाया है ?
प्रस्तुत स्तोत्र में २६ पद्य हैं। जिनमें जिन दर्शन की महत्ता च्यापित करते हुए जिन प्रतिमादर्शन को लौकिक और पारलौकिक अभ्युदयों का कारण बतलाया है :
श्री लीला यतनं महोकुलगह कीति प्रमोदास्पदं, वाग्देवी रति केतनं जयरमा क्रीडानिधानं महत् । स स्यात्सर्व महोत्सवक भवनं यः प्राथितार्थप्रद
प्रातः पश्यति कल्पपादपदलच्छायं जिनांधिद्वयम् ।।१।। जो मनुष्य प्रतिदिन प्रात:काल के समय जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करता है, वह बहुत हो सम्पत्तिशाली होता है । पृथ्वी उसके वश में रहती है, उसकी कीति सब पोर फैल जाती है, वह सदा प्रसन्न रहता है । उसे अनेक विद्याएँ प्राप्त हो जाती हैं, युद्ध में उसकी विजय होती है, अधिक क्या उसे सब उत्सव प्राप्त होते हैं।
स्वामिन्नद्य विनिर्गतोऽस्मि जननी गन्धि कुपोदरादद्योद्घाटित वृष्टि रश्मि फलवज्जन्मास्मि चाय स्फुटम् । त्वमद्रासमहं यदक्षयपदानन्दाय लोकत्रयो
नेग्नेन्वीवरकाननेन्दु ममतस्यन्ति प्रभाचन्द्रिकम् ॥३ हे भगवन ! आज आपके दर्शन करने से मैं कृतार्थ हो गया और मैं ऐसा समझता है कि प्राज ही मेरे आध्यात्मिक जीवन का प्रारम्भ हो रहा है। मेरे ज्ञान नेत्र खुल गए हैं और में यह अनुभव कर रहा कि विषय कषाय और अज्ञान के कारण अब तक मेरी शक्ति कुठित हो रही थी। मिथ्यात्व ने मेरी ज्ञान दृष्टि को अवरुद्ध कर दिया था । पर आज मेरा जन्म सफल हुना है। जो व्यक्ति मंगलमय वस्तु का दर्शन करना चाहता है उसके लिये जिनदर्शन से बढ़कर अन्य कोई मांगलिक वस्तु नहीं हो सकती। प्रातःकाल मंगलमय वस्तु का अवलोकन करने से मन प्रसन्न रहता है, और उस में कार्य करने की क्षमता बढ़ती है । क्योंकि देव दर्शन समस्त पापों का नाश करने बाला, स्वर्ग सुख को देने वाला और मोक्ष सुख की प्राप्ति में सहायक है । ध्यानस्थ दोतरागी की प्रतिमा के अवलोकन मात्रसे काम क्रोधादि विकार और हिंसादि पाप नष्ट हो जाते हैं, और भात्मोत्थान की प्रेरणा मिलती है। जिस प्रकार सछिद्र हाथ में रखाखा गया जल शनैः शनैः हाथ से गिर जाता है, उसी प्रकार वीतराग प्रभु के दर्शन मात्र से राग-द्वेष-मोह की परिणति क्षीण होने लगती है।' आचार्य पूज्यपादने सर्वार्थ सिद्धि में सम्यक्त्व की उत्पत्ति के बाह्य साधनों में जिन प्रतिमादर्शन की गणना की है। भूपाल कवि ने वीतराग के मुख को त्रैलोक्य मंगल निकेतन बतलाया है।
- इस स्तबन पर सबसे पुरानी टीका पं० आशाधर को है जिसे उन्होंने सागरचन्द के शिष्य विनयचन्द्र मुनि
१ दर्शनं देवदेवस्य दर्शनं पागनाशनम् । दर्शनं स्वर्ग सोपान दर्शनं मोक्ष साधनम् ।।
दर्शनेन जिनेन्द्राणां साधना वन्दनेन च । न चिर निष्ठते पापं छिद्र हस्ते पथोदकम् ।। दर्शन पाट २ सर्वायं सिद्धि १-३, पृ० १२ शोलापुर एडीसन ३ अन्येन किं तदिह नाच लवंव वात्रं त्रैलोक्य मङ्गलनिकेतनमीक्षणीयम् ।।१६
-जिन चतुविशतिका