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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ ༢༠༠ नाम से क्या थे । यह उनकी प्रथम रचना है। उनकी अन्य रचनाओं का अन्वेषण होना श्रावश्यक है । श्रङ्कदेव भट्टारक प्रङ्कदेव भट्टारक — देवगण और पाषाणान्वय के विद्वान् थे । इनके शिष्य महीदेव भट्टारक थे। इन महीदेव के गृहस्थ शिष्य महेन्द्र दोललुक ने मेलस चट्टान पर 'निरवद्य जिनालय' बनवाया था, और सन् १०६० ईस्वी के लगभग खचर कन्दर्पसेन मारकी कृपा को प्राप्त कर निरवद्य को 'मान्य' प्राप्त हुआ था। जिसे उसने जक्क मान्य का नाम देकर उक्त जिनालय को दे दिया । और एडे मले हजार ने अपने धान्य के खेतों की फसल में से कुछ धान्य या नामक जिस को हमेशा के लिए दिया और भी जिन लोगों ने दान दिया उनके नाम भी लेख में दिए गये हैं । इससे अंकदेव का समय ईसा को ११ वीं सदी है। जैन लेख सं० भा० २०१६३ ॥ गुणकीर्ति सिद्धान्त देव गुणकीर्ति सिद्धान्तदेव अनन्तवीर्य के शिष्य थे । यह यापनीय संघ धौर सूरस्थ गण और चित्रकूट ग्रन्वय के विद्वान् थे। इनका समय ईसा की ११वीं शताब्दी है । - (जैनिज्म इन साउथ इंडिया पृ० १०५ ) देवकीति पण्डित पण्डित देव कीर्ति भी अनन्तवीर्य के शिष्य थे । यह भी यापनीय संघ सूरस्थगण और चित्रकूट अन्वय के विद्वान् थे । इनका समय भी ईसा की ११वीं शताब्दी है । संभवतः ये दोनों सघर्मा हों । -(जैनिज्म इन साउथ इंडिया पृ० १०५ ) गोवर्द्धन देव गोवर्द्धन देव यापनीय संघ कुमुदगण के ज्येष्ठ धर्मगुरु थे । इन्हीं गोवर्द्धन देव को सम्यक्त्व रत्नाकर चैत्याके लिए दिये गए दान का उल्लेख है । गोवर्द्धन के साथ ही अनन्तवीर्य का उल्लेख है । पर यह स्पष्ट नहीं है। कि इनका गोवर्द्धन के साथ क्या सम्बन्ध था । - जैनिज्म इन साउथ इंडिया पृ०१४२ दामनन्दि दामनन्दि कुमार कीर्ति के शिष्य थे। ये दामनन्दि वे सकते हैं जिनका उल्लेख जैन शिलालेख संग्रह भाग १ पृ० ५५ में चतुर्मुखदेव के शिष्यों में है । धाराधिपति भोजराज की सभा के रत्न ग्राचार्य प्रभाचन्द्र के ये धर्मा थे और इन्होंने महावादि विष्णुभट्ट को हराया था। यह दामनन्दी प्रभाचन्द्राचार्य के सधर्मा गुरुभाई जान पड़ते हैं। धाराधिप भोज का राज्यकाल सन् १०१८ से १०५३ माना जाता है। जबकि दामनन्दि का सन् १०४५ के शिलालेख में उल्लेख है । इस कारण वे भोज के राज्यकाल में रहने वाले प्रभाचन्द्र के सुधर्मा दामनन्दि से अभिन्न हो सकते हैं। अतः दामनन्दि के गुरु कुमारकीर्ति के सहाध्यापक अनन्त वीर्य की स्थिति सन् १०४५ तक पहुंच जाती है । संभवतः यह दामनन्दी भट्टवोसरि के गुरु हों । दामनन्दि मट्टारक दामनन्दि देशीगण पुस्तक गच्छ के विद्वान श्रीधरदेव के प्रशिष्य और एलाचार्य के शिष्य थे। चिक्क हन सोगे का यह कन्नड़ लेख यद्यपि काल निर्देश से रहित है । संभवतः यह लेख सन् १९०० ईस्वी का है । जैन लेख सं० भा० २ पृ० ३५८ लेख नं० २४१ ।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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