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________________ ३२७ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य कव प्राधमकेगी यह निश्चित नहीं है, अतएब बुद्धिमान मनुष्य के हैं, जो मानव जीवन और उनम कुलादि की साधन सामग्री को पाकर भी विषय तृष्णा से पराङ्मुख होकर अपने आत्मा का हित करते हैं। अन्त में धर्म का महत्व बतलाकर प्रकरण समाप्त किया है। २ दानोपवेशन-इस अधिकार में ५४ श्लोक हैं, जिनमें दान की आवश्यकता पौर महता पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। और दानतीर्थ के प्रवर्तक राजा श्रेयांस का पहले ही स्मरण किया है। जिस प्रकार पानी वस्त्रादि में लगे हये रुधिर को धोकर स्वच्छ बना देता है उसी प्रकार सत्पात्र दान भी वाणिज्यादि से समपन्न पापमल को धोकर निष्पाप बना देता है। ३ अनित्य पञ्चाशत्-इस अधिकार में ५५ श्लोक हैं। इस प्रकरण में शरीर, स्त्री पुत्र, एवं धनप्रादि की स्वाभाविक अस्थिरता बतलाते हए उसके संयोग-वियोग में हर्ष और विषाद के परित्याग की प्रेरणा की गई है। मरण पायुकर्म के श्रीण होने पर होता है. अतः उसके होने पर शोक करना व्यर्थ है, ४ एकत्व सप्तति-इस प्रकरण में ८० श्लोक दिये हैं। जिनमें बतलाया है कि चेतनत्व प्रत्येक प्राणी के भीतर अवस्थित है, तो भी जीव अज्ञान वश उसे जान नहीं पाता । जैसे लकड़ी में अव्यक्त रूपसे अग्नि होते हुए भी नहीं जान पाते, उसी तरह प्रात्मतत्व का बोध भी प्रज्ञान के कारण नहीं होता। जिनेन्द्र देव ने उस परम आत्म तत्त्व की उपासना का उपाय एक मात्र साम्यभाव को बतलाया है । स्वास्थ्य, समाधि, योग, चित्तनिरोध और शुद्धोपयोग ये सब उसी साम्य के नामान्तर हैं। कर्म और रागादि हेय हैं, उन्हें छोड़ देना चाहिये। ज्ञान दर्शनादि उपयोग रूप परम ज्योति को उपादेय समझना चाहिए। अन्त में प्रात्मतत्त्व के अभ्यास का फल मोक्ष को प्राप्ति बतलाया है। ५ यतिभावनाष्टक-इस प्रकरण में पद्य हैं जिनमें उन मुनियों का स्तवन किया गया है, जो भयानक उपसर्ग होने पर अपने स्वरूप से विचलित नहीं होते, प्रत्युत कष्ट सहिष्णु बनकर उन पर विजय प्राप्त करते हैं। ६ उपासक संस्कार--इसमें ६२ पद्य हैं, दान के आदि प्रवर्तक राजा श्रेयांस का उल्लेख करते हुए, देव पूजादि षट आवश्यकों का कथन किया गया है। सामयिक व्रत का स्वरूप निर्दिष्ट करते हुए सप्त व्यसनों का परित्याग अनिवार्य बतलाया है। ७. देशवतो द्योतन-इसमें २७ श्लोक हैं जिन में देव दर्शन 'पूजन रात्रिभोजन त्याग' त्यालय निर्माण, छह आवश्यक, पाठ मूलगुणों और पांच अणुव्रतादि रूप उत्तर गुणों को धारण करने का उल्लेख किया है । और गृहस्थों को पाप से उन्मुक्त होने के लिए चार दान को प्रेरणा की है। ६. सिद्ध स्तुति-२६ श्लोकों में सिद्धों की स्तुति करते हुए प्रष्टकर्मों के प्रभाव से कौन-कौन से गुण प्रादुर्भत होते हैं, इसका निर्देश किया है। १. प्रालोचना-प्रज्ञान या प्रमाद से उत्पन्न हुए पाप को निष्कपट भाव से जिनेन्द्र व गुरु के सामने प्रकट करता आलोचना है । आत्मशुद्धि के लिए दोषों की आलोचना पावश्यक है। आत्म निरीक्षण, निन्बा और गहरे करना उचित है, आत्मनिन्दा करते हुए यह मेरा पाप मिथ्या हो ऐसा विचार करना चाहिए । कृत, कारित, अनुमोदना और मन वचन काय से संगुणित नौं स्थानों से पाप उत्पन्न होता है, उनका परिमार्जन करने के लिए प्रालोचना करनी चाहिए। १०. सद्वोध चन्द्रोदय-यह ५० पद्यों की रचना है। इसमें परमात्म स्वरूप का महत्व दिखलाकर बतलाया है कि जिसका चित्त उस चितस्वरूप में लीन हो जाता है वह योगियों में श्रेष्ठ हो जाता है । उस योगी को समस्त जीव राशि अपने समान दिखाई देती है, उसे कर्म कृत विकारों से भी क्षोभ नहीं होता । यह जीव मोह रूपी निद्रा में चिरकाल से सोया है, अब उसे इस ग्रन्थ को पढ़ कर जागृत हो जाना चाहिए। ११. निश्चय पञ्चाशत-६२ पद्यात्मक इस प्रकरण में प्रात्मा के जानने में कारणभूत शुद्ध नय प्रार व्यवहार नय है। इनमें व्यवहार नय अज्ञानी जनों के बोध करने के लिये है। और शुद्धनय कर्म क्षय में कारण है। इस कारण उसे भूतार्थ और व्यवहार नय को अभूतार्थ बत लाया है। वस्तु का यथार्थ स्वरूप मनिर्वचनीय है, उसका कथन व्यहारनय से वचनों द्वारा किया जाता है। शुखनय के माश्रय से रत्नत्रय को पाकर अपना विकास करता है।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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