SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 338
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ जिसके कर्ता पमनन्दि व्रती हैं, उन्होंने अपने गुरु का नाम राद्धान्त शुभचन्द्र देव बतलाया है, वे उनके अग्रशिष्य थे । उन्होंने यह टीका निम्बराज के प्रबोधनार्थ बनाई थी, जो शिलाहार नरेश गण्डरादित्य के सामन्त थे 1 निम्बराज ने कोल्हापुर में शक सं० १०५८ (वि० सं० ११६३) में रूप नारायण वसदि (मन्दिर) का निर्माण कराया था और उसके लिए कोल्हापुर तथा मिरज के पास-पास के ग्रामो का दान भी दिया था। एकत्व सप्तति की यह टीका सं० ११६३ के लगभग की रचना है, इससे स्पष्ट है कि एकत्व सप्तति उससे पूर्व बन चुकी थी। अर्थात् एकत्व सप्तति मं० १९८०-८५ की रचना है। उक्त पद्मनन्दि को निम्न रचनाएं उपलब्ध हैं, जिनका संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है। यहां यह बात भी सुनिश्चित है कि पद्मनन्दि के ये सभी प्रकरण एक साथ नहीं बने, मिन्न-भिन्न समयों में उनका निर्माण हुम्रा है इसी दुष्टि को लक्ष्य में रखकर रचना काल में भी परिवर्तन अनिवार्य है। रचनाओं का नाम १धर्मोपदेशामृत, २ दानोपदेशन, ३ अनित्य पञ्चाशत्, ४ एकत्व सप्तति, ५ यमिभावनाष्टक, ६ उपासक संस्कार, ७ देशप्रतोद्योतन, ८ सिद्धस्तुति, ६ पालोचना, १० सद्वोध चन्द्रोदय, ११ निश्चय पञ्चाशत, १२ ब्रह्मचर्य रक्षा वर्ति, १३ ऋषभ स्त्रोत्र, १४ जिन दर्शन स्तवन, १५ श्रुत देवता स्तुति, १६ स्वयंभू स्तुति, १७ सुप्रभाताष्टक १८ शान्ति नाथ स्तोत्र, १६ जिन पूजाष्टक, २० करुणाष्टक, २१ क्रियाकाण्डचूलिका, २२ एकत्व भावना दशक, २३ परमार्थ विशति, २४ शरीराष्टक, २५ स्नानाष्टक, २६ ब्रह्मचर्याष्टक । धर्मोपदेशामत—यह अधिकार सबसे बड़ा है, इसमें १६८ श्लोक हैं। पहले धर्मोपदेश के अधिकारी का स्वरूप निदिष्ट करते हए, धर्म का स्वरूप व्यवहार और निश्चय दृष्टि से बतलाय है। व्यवहार के प्राश्रय से जीवदया को-प्रशरण को शरण देने और उसके दुःख में स्वयं दुःख का अनुभव करने को-धर्म कहा है। वह दो प्रकार का है गृहस्थ धर्म और मुनि धर्म । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चरित्र की अपेक्षा तीन भेद, और उत्तम क्षमादि की अपेक्षा दश भेद बतलाये है। इस व्यवहार धर्म को शुभ उपयोग बतलाया है, यह जीव को नरक तिर्यचादि दुर्गतियों से बचाकर मनुष्य और देवगति के सुख प्राप्त कराता है। इस दृष्टि से यह उपादेय है। किन्तु सर्वथा उपादेय तो वह धर्म है जो जीव को चतुर्गति के दुःखों से छड़ा कर अविनाशी सूख का पात्र बना देता है। इस धर्म को शुद्धोपयोग या निश्चय धर्म कहते हैं। गहि धर्म में श्रावक के दर्शन, व्रत प्रतिमा प्रादि ग्यारह भेदों का कथन किया है। इनके पूर्व में जुआदि सात व्यसनों का परित्याग अनिवार्य बतलाया है, क्योंकि उनके बिना त्यागे व्रत आदि प्रतिष्ठित नहीं रह सकते। क्योंकि व्यसन जीवों को कल्याणमार्ग से हटाकर अकल्याण में प्रवृत्ति कराते हैं। उन द्यूतादि व्यसनों के कारण युधिष्ठिर आदि को कष्ट भोगना पड़ा है । गृहि धर्म में हिंसादि पंच पापों का एक देश त्याग किया जाता है। इसी से गृहि धर्म को देश चारित्र और मुनि धर्म को सकल चारित्र कहा जाता है। सकल चारित्र के धारक मुनि रत्नत्रय में निष्ठ होकर मूल गुण, उत्तर गुण, पंच प्राचार और दश धर्मों का पालन करते हैं। मुनियों के मूल गुण २- होते हैं-पांच महाव्रत, पांच समिति, पांचो इन्द्रियों का निरोध, समता, आदि छह आवश्यक लोच, वस्त्र का परित्याग, स्नान का त्याग भू शयन, दन्तघर्षण का त्याग, स्थिति भोजन, और एक भक्त भोजन । साघु स्वरूप के अतिरिक्त आचार्य और उपाध्याय का स्वरूप भी निर्दिष्ट किया है। मानव पर्याय का मिलना दुर्लभ है, अत: इससे प्रात्महित के कार्यों में संलग्न रहना चाहिए। क्योंकि मृत्यु का काल अनियत है-वह १. श्री पचनन्दि व्रति निमितेयम् एकत्व सप्तत्यखिलार्थ पूतिः। ___ वृत्तिश्चिर लिम्बनूप प्रबोध लब्धात्मवृत्ति जया जगत्याम् ।। स्वस्ति श्री शुभचन्द्रद्धिान्तदेवाग्रशिध्येण कनकनन्दिपण्डित वाश्मिविकसितहत्कुमुदानन्द श्रीमद् अमृत चन्द्र चन्द्रिकोम्मीलित नेत्रोत्सलाव नोकिताशेषाव्यात्मतत्त्ववेदिना पद्मनन्दिमुनिना श्रीमजनसुधाब्धिवर्धनकरावणेन्दु दुरानति वीर श्री पति निम्बराजावबोधनाय कृर्तकत्व सप्तलेवत्तिरियम् । –पयनन्दि पंचविशति की अंग्रेजी प्रस्तावना से उद्धत प०१३
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy