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________________ तैरवों और चौदहवीं शताब्दी के विद्वान, प्राचार्य और कवि ४४५ भूषण थे। इन्होंने अपने को 'स्याद्वाद चूड़ामणि' लिखा है' 1 इसकी एक मात्र कृति गुणभूषण श्रावक चार है। जिसे भव्य जिन चित्त वल्लभ' भी कहा जाता है। इस ग्रन्थ को कवि ने पुरपाट वंशी जोमन और नामदेवी के । नैमिदेव के लिये बनाया था। जो गुणभूषण के चरणों का भक्त था। जोमन के दूसरे पुत्र का नाम लक्ष्मण था । जैसा कि ग्रन्थ के निम्न पुष्पिका वाक्य से प्रकट है : पुत्र ' इति श्रीमद् गुणभूषणाचार्य विरचिते भव्यजनचित्त वल्लभाभिधान श्रावकाचारे साठु नेमिदेव नामांकिते सम्यक्त्मचरित्रं तृतीयद्ददेशः समाप्तः ।' प्रस्तुत ग्रंथ तीन उद्देश्यों में समाप्त हुआ है । अन्तिम उद्देश्यों में सम्यक्त्व और चारित्र का वर्णन किया गया है । गुणभूषण के श्रावकाचार पर वसुनन्दि के उपासका चार का प्रभाव अंकित है। इतना ही नहीं किन्तु दोनों की तुलना से स्पष्ट प्रतीत होता हैं कि उन्होंने उसकी अनेक प्राकृतिक गाथायों के संस्कृत रूपान्तर द्वारा अपने ग्रन्थ की श्री वृद्धि की है। श्रावकचार के वर्णन में कोई वैशिष्ट्य भी नहीं है- अन्य श्रावका चारों के समान हो उसमें कथन है । जैसा कि निम्न तुलना से स्पष्ट --- स्यादन्योन्य प्रवेशानां प्रदेशो जीवकर्मणोः । सबन्धः प्रकृति स्थिर नुभावादिस्वभावक ॥। १७गु प० प्रोगाणु पवेसो जो जीवपएसम्म संधाणं । सो द्विवि- श्रणुभव-पएसबो चउविहो बंधी ॥४१ वसु० सम्यक्तव्रतैः कोपादी निग्रहाद्योगनिशेषतः । कर्मास्रव निरोधो यः सत्संवरः स उच्यते ॥। १८ गुण० सम्मत्तेहि वहि कोहाइ कसाय णिग्गाह गुणेहि । जोगगिरोहेण तहा कम्मासव संवरो होइ ||४२ वसु० विपाका विपाकाश्च निर्जरा स्याद् द्विघादिमा । संसारे सर्व जीवानां द्वितीया सु-तपस्विनाम् ॥ गुण० सविपामा अविवाया दुबिहा पुण णिज्जरा मुणेयब्वा । सवसि जीवाणं पठमा विविया तथस्सीणं ॥ यूतमध्यामिषं वेश्याखेटोपराता । सप्तं तानि पापानि व्यसनानि त्यजेत्सुधीः ॥११४ गुण ० मज्जं मंसं वेसा पारद्धि-चोर-परमारं । जयं बुग्गइ गमणस्सेवाणि हे भूवाणि पावाणि ॥ ५६ वसु० इसी तरह गुणभूषण श्रावकाचार के २०४, २०५, २०६, २०७ पद्यों के साथ वसुनन्दी श्रावकाचारको गाथा ३३६, ३३७, ३४२, र ३४४ के साथ तुलना कीजिए। घोर भी अनेक गाथाओं का संस्कृति रूपान्तर किया गया है । वसुनन्दी का समय १२वीं शताब्दी है इससे इतना तो सुनिश्चित है कि गुणभूषण वसुनन्दी के बहुत बाद हुए हैं। गुणभूषण ने जोमन के पुत्र नेमिदेव के लिये इसकी रचना की है जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है। नेमिदेव वीरजिनेन्द्र के चरण कमलों का भक्त हेय उपादेय के विचारों में निपुण, रत्नत्रय के धारक, दानदाता, आदि १. विख्यातोऽस्ति समस्तलोकवसये श्री मूलसंघोऽनघः । तत्राद्विनयेन्दु तदभुतमतिः श्री सागरेन्दोः सुतः ॥२५९ सच्छिष्योऽजनि मोहभूभृदा निस्त्रैलोक्यकीर्तिमुनिः । सच्छिष्यो गुणभूषणः समभवरस्याद्वादचूड़ामणिः ॥ २६० गुण ०प्र० २. देखो गुणभूषण श्रावकाचार प्रशस्ति के २६१ से २६७ तक के पद्य ।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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