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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ उस पर आक्रमण कर दिया। इन्द्रसेन और उपेन्द्रसेन दोनों की सेना ने बड़ी वीरता से युद्ध किया, जिससे देवसेन को सेना छिन्न-भिन्न होने लगी। कुमार वरांग ने पाकर देवसेन को महायता की और इन्द्रसेन पराजित हो गया। ललितपुर के राजा देवसेन कुमार के बल और पराक्रम से प्रसन्न होकर उसे अपनी पुत्री सुनन्दा और प्राधा राज्य प्रदान करता है। एक दिन राजा की मनोरमा नाम को पुत्री कुमार के रूप सौन्दर्य को देखकर मासक्त हो जाती है, और विरह से जलने लगती है। मनोरमा कुमार के पास अपना दूत भेजती है। पर दुराचार से दूर रहने वाला कुमार इंकार कर देता है । मनोरमा चिन्तित और दुखी होती है। वरांग के लुप्त होजाने पर सुषेण उत्तम पुर के राज्य कार्य को सम्हालता है परन्तु वह अपनी अयोग्यतामों के कारण शासन में असफल हो जाता है। उसकी दुर्बलता और धर्मसेन को वृद्धावस्था का अनुचित लाभ उठाकर बबूलाधिपति उत्तमपुर पर आक्रमण कर देता है । धर्मसेन ललितपुर के राजा से सहायता मांगता है। वरांग इस अवसर पर उत्तमपुर जाता है, और वकुलाधिपति को पराजित कर देता है। पिता-पुत्र का मिलन होता है, और प्रजा वरांग का स्वागत करती है। वह विरोधियों को क्षमाकर राज्य प्रशासन प्राप्त करता है। और पिता की अनुमति से दिग्विजय करने जाता है और अपने नये राज्य की राजधानी सरस्वती नदी के किनारे प्रानतपर को बसाता है। बरांग ने प्रानर्तपुर में सिद्धायतन नाम का चैत्यालय निर्माण कराया । योर विधि पूर्वक उसकी प्रतिष्ठा सम्पन्न कराई। एक दिन ब्राह्म मुहूर्त में राजा वरांग ने तेल समाप्त होते हए दीपक को देखकर देह-भोगों से विरक्त हो जाता है और दीक्षा लेने का विचार करता है परिवार के व्यक्तियों ने उसे दीक्षा लेने से रोकने का प्रयत्न किया, किन्तु वह न माना। और वरदत्त केवली के निकट दिगम्बर दोक्षा धारण को। और तपश्चरण द्वारा आत्मसाधना करता हआ अन्त' में तपश्चरण से सर्वार्थ सिद्धि विमान को प्राप्त किया। उसकी स्त्रियों ने भी दोक्षा ली उन्होंने भो अपनी शक्ति अनुसार तपादि का अनुष्ठान किया । और यथायोग्य गति प्राप्त की। मंगराज (द्वितीय) यह 'कम्मे कस के विश्वामित्र गोत्रीय रेम्माई रामरस का पुत्र था। यह अभिनव मंगराज के नाम से प्रसित हैं। इसने मंगराज निघण्टु या अभिनव निघण्टु नाम का कोश बनाया है। कवि ने शशिपुर के सोमेश्वर के प्रसाद से शक सं० १३२० (सन् १३९८ ई०) में उक्त कोष को समाप्त किया है। प्रतः कवि का समय ईसा को १४वीं शदी का अन्तिम भाग है। अभयचन्द्र यह कन्दकन्दान्बय देशीय गण पुस्तक मच्छ के विद्वान जयकीर्ति के शिष्य थे। यह वही राय राजगुरुमण्डलाचार्य महाबाद वादीश्वर रायवादी पितामह अभयचन्द्र सिद्धन्त देव जान पड़ते है जिन्होंने सांख्य, योग, चार्वाक बौद्ध, भट्र प्रभाकर आदि अनेक वादियों को शास्त्रार्थ में विजित किया था। शक सं० १३३७ (ई. सन १४१५) में इनवे गहस्थ शिष्य बल्ल गौड़ ने समाधिमरण किया था । इनका समय १३७५–१४०० ई० के लगभग सुनिश्चित है। यही अभयचन्द्र लघीयस्वभयवृत्ति के टीकाकार जान पड़ते हैं। गुणभूषण यह मूलसंघ के विद्वान सागरचन्द्र के शिष्य विनयचन्द्र मुनि के शिष्य त्रैलोक्यकीर्ति थे उनके शिष्य गुण १.देखो, एपिग्राफिया कर्नाटिका ७ सोरथ तालुका ० १३६।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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