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________________ Yv रूप से उसके गुणों की प्रशंसा करते हुए उसकी मंगल का कामना की है'। समय-गुणभूषण ने ग्रन्थ में रचना काल नहीं दिया, यतः अन्य साधनों से उस पर विचार किया जाता है। विनयचन्द्र पं० प्राशाघर के शिष्य थे, प्राणाधर ने उन्हें धर्मशास्त्र पढ़ाया था। सागरचन्द्र के शिष्य विनयचन्द्र के लिए इष्टोपदेशमादि प्रयों की टीका की थी। इन्हीं जिनयचन्द्र के शिष्य त्रैलोक्य कीर्ति के शिष्ट गुणभूषण थे । मतः गुणभूषण का समय विक्रम की १४वीं शताब्दी का पूर्वार्ध जनता अय्यपा 1 I यह मूल संधान्वयी पुष्परोम मुनि के शिष्य थे। ग्रव्ययं ने अपने गुरु पुष्पसेन की बड़ी प्रशंसा की है, उन्हें 'अन्य मतोषकारमथनः' मोर 'स्वाद्वाद तेजोनिधिः' जैसे विशेषणों से युक्त प्रकट किया है। इससे वे बड़े भारी विद्वान और तपस्वी जान पड़ते हैं। कवि के पिता का नाम करुणाकर था, जो आवक धर्म के पालक थे। और माता का नाम 'अर्काग्या' था जो पतिव्रता, पुण्यलक्ष्मी और चारित्रमूर्ति थी। इनका गोत्र काश्यप था और इन दोनों का पुत्र थापा, जो जिन चरण युगल के आराधन में तत्पर था। जिसने अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया था । मीर मंत्र तथा औषधियों का भी ज्ञाता था, नय-विनयवान था, उसने पद्मावती देवी द्वारा वर के प्रसाद से 'जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदय' नामक ग्रन्थ की रचना की थी। इस भ्रन्थ में जिनेन्द्र की प्रतिष्ठा विधि का वर्णन किया है। प्रशस्ति में कवि ने चतुविशतितीर्थंकरों को स्तुति के बाद भगवान महावीर की संघ परम्परा के बुतपर आचायों का उल्लेख करते हुए कुन्दकुन्द वाचक उमास्वाति (पिच्छाचार्य) समन्तभद्र, शिवकोटि, शिवायन, पूज्यपाद वीरसेन जनसेन, गुणभद्र चन्द्र, रामसेन, प्रकलंक, विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि, प्रभाचन्द्र, रामचन्द्र वासवचन्द्र घादि का उल्लेख किया है। १. श्रीमद् वीरजनेश पाटकमले चेतः सदा । हेपादेव विचारोपनिपुखा बुद्धिवन यस्थात्मनि । २६५ दानं चोकर कुमले पुरातति हे शिरस्युन्नतिः । रस्नानां त्रितयं इदि स्थितमसो नेमिचरं मंदतु ॥९६९ २. योन्य मतान्धकारमयनः स्याद्वादतेजोनिधिः ।' जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ --- जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदय प्र० ३. तं पुष्पसेन देवं कलिगोश्वरं सदावंदे | यस्वपचसेना विधान भवति कामदुहाः ॥३१ तदीयसिध्योऽजनि दाक्षिणात्यः श्रीमान्द्विजन्माभिषजां वरिष्ठः । जिनेन्द्रपादाम्बुरुः साधारथमं करुणाकराः ॥४२ सस्यंव पत्नी कुलदेवते व पतितालंकृत पुष्पलक्ष्मी, गाम्दा जति प्रतीतः पतिः जनानो ॥५३ तयोरासीत्सूनुस्तदमलगुणाढ्यो स बिनयो, जिनेन्द्रः श्री पादाम्बुपर अधीतः सारचाणामरियलमणि मंत्रोपवित, विपश्चि नित नय-विनयवाला श्रीमूलकविता खिल सन्मुनीनां, श्रीपादपद्मसरसरह राजहंसः । पापा इति कारयद मोक्यों नापाक वरवंशसमुद्रचन्द्रः ।।५४ इतिषः ॥५४ ४. पद्मावती दत्तवरप्रसादास्सा स्वतं प्राप्य युधास्यं येन । जिनेन्द्र कन्याण समायो यं ग्रन्थोभ्युषास्यभ्युदया: प्रबंधः ||५६ -त्रि० कल्या० प्र० - जि० कल्याण० प्र०
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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