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________________ स्यारहवीं औ बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य और त्रिलोकसार की कुछ गाथागों में सादृश्य पाया जाता है। उससे एक दूसरे के मादान-प्रदान की प्राशंका होती है। त्रिलोकसार की रचना विक्रम की ११वीं शताब्दी के पूर्वाधं की है। प्रशस्ति में वारा नगर का वर्णन करते हुए उसे पारियात्र देश में स्थित बतलाया है हेमचन्द्र के अनुसार 'उत्तरोविन्ध्यात्, पारियात्रः' वाक्य से पारियात्र देश विन्ध्याचल के उत्तर में हैं। वह उस समय पुष्करणी वावडी, सुन्दर भवनों, नानाजनों से संकीर्ण और धन-धान्य से समाकूल, जिन भवनों से विभूषित, सम्यग्दृष्टि जनों और मूनि गणों के समूहों से मंडित या। उसमें वारा नगर का प्रभ शक्ति भूपाल राज्य करता था, जो सम्यग्दर्शन से शुद्ध, कृत-वत कर्म, शील सम्पन्न, अनवरत दान शोल, शासन वत्सल, धीर, नाना गुण कलित, नरपति संपूजित कलाकुशल और नरोत्तम था। नन्दि संघ की पट्टावली में वारा नगर के भट्रारको कागदी का जोश है। सिम नि सं. ११४४ से १२०६ तक के १२ भट्टारकों के नाम दिये हैं। पद्मनन्दि की गुरु परम्परा उससे सम्बद्ध जान पड़ती है। राजपूताने के इतिहास में गुहिलोत वंशी राजा नरवाहन के पुत्र शालिवाहन के उत्तराधिकारी शक्ति कुमार का उल्लेख मिलता है। ग्रन्थ में उल्लिखित शक्ति कुमार वही जान पड़ता है। पाटपुर (आहाड) के शिलालेख में गुहदत्त (मुहिल) से लेकर शक्ति कुमार तक की पूरी वंशावली दी है। यह लेख वि० सं० १०३४ वैशाख शुक्ला १ का लिखा हुआ है। अतः यही समय जम्बूद्वीपपण्णत्ती की रचना का निश्चित है । यह पद्मनन्दि विक्रम की ११वी शताब्दी के विद्वान् हैं। इनकी दूसरी रचना 'धम्मरसायण' है। यह ग्रन्थ भी इन्हीं का बतलाया जाता है। जो १९३ गायानों का अन्य है जो सरल एवं सुबोध है। और माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला में सिद्धान्तसार के अन्तर्गत प्रकाशित हो चका है। इसमें धर्म की महिमा, धर्म-अधर्म के विवेक प्रेरणा । परीक्षा करके धर्म ग्रहण करने की आवश्यकता, अधर्म का फल नरकादिके के दुःख सर्वज्ञ प्रणीत धर्म की उपलब्धि न होने पर चतर्गतिरूप संसार परिभ्रमण, सर्वज्ञों की परीक्षा और सागार अनगार धर्म का संक्षिप्त परिचय बणित है। कविधवल इनका जन्म विप्रकुल में हुआ था। इनके पिता का नाम सूर या सुरदेव था और माता का नाम केसूल देवी था, कवि धवल जिन चरणों में अनुरक्त और निर्ग्रन्थ ऋषियों का भक्त था। कुतीर्थ और कुधर्म से विरक्त था। इनके गुरु अंबसेण थे, जो अच्छे विद्वान और वक्ता थे। उन्होंने हरिवंश पुराण का जिस तरह व्याख्यान किया कवि ने उसको उसी तरह से निबद्ध किया। कवि ने ग्रन्थ में रचना काल नहीं दिया, अतएव रचना काल के निश्चय करने में कठिनाई प्रतीत हो रही है। कवि ने अपनी रचना में अपने से पूर्ववर्ती अनेक कवियों का और उनकी रचनाओं का उल्लेख किया है। कवि चक्रवर्ती धोरलेन सम्यक्त्व युक्त प्रमाण ग्रन्थ विशेष के कर्ता, देवनन्दी (जनेन्द्र व्याकरण के कर्ता) वज्रमूरि प्रमाण ग्रन्थ के कर्ता, महासेन का सुलोचना चरित, रविषेण का पद्म चरित, जिनसेन का हरिवंश पुराण जटिल मुनि का वरांगचरित, दिनकरसेन का अनंगचरित, पचसेन का पाश्वनाथ चरित, अंबसेन की अमताराधना धनदत्त का चन्द्रप्रभचरित, अनेक चरितग्रन्थों के रचयिता विष्णुसेन, सिंहनन्दि की अनुप्रेक्षा, नरदेव का णमोकार मंत्र सिद्धसेन का भविक विनोद, रामनन्दी के अनेक कथानक, जिनरक्षित (जिनपालित) धवलादि ग्रन्थ प्रख्यापक, असग का वीर चरित, गोबिन्द कवि (श्व०) का सनत्कुमार चरित, शालिभद्र का जीवउद्योत, चतुर्मख, द्रोण, सेढ़ महाकवि का पउम चरिउ प्रादि विद्वानों और उनकी कृतियों का उल्लेख है। इन कवियों में प्रसग और पद्यसेन ने अपने ग्रन्थों में रचमा काल का उल्लेख किया है। आसग कवि का समय सं०६१० है, और पग्रसेन का समय वि० .१ देखा जम्बूद्वीपणती की प्रशस्ति की १६५ से १६८ तक की गाथाएं । २. देखो जैन साहित्य और इतिहास (बम्बई १९५६ पृ० २५६-२६५) ३. मइ विप्पहो मूरहो दरणेण, केसुल्लय उवरि तह संभवेरए । जिरगवरही चरण अनुरत्तएण, रिणगंथह रिसियह मत्तएण। कुतिस्थ कुधम्म विरसएण, णामुजलु पपडु बहतए । ४. जैन अन्य प्रशस्ति संग्रह मा० २ पृ० ११
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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