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________________ २७४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ ९९६ है। इससे स्पष्ट है कि धवल कवि का समय विक्रम को ११वीं सदी है अर्थात् प्रसग कवि १०वीं शताब्दी के पूर्वार्थ के विद्वान जान पड़ते हैं। रचना कवि की एक मात्र कृति हरिवंश पुराण है, जिसमें १२२ सन्धियां हैं, जिनमें २२वें तीर्थकर यदुवंशी भगवान नेमिनाथ की जीवन-गाथा पंकित की गई है, साथ ही, महाभारत के पात्र कौरव और पाण्डव एवं श्रीकृष्ण मादि महापुरुषों का जीवन परित भी दिया इमा है। जिससे मनाभासकर ऐतिहासिक रचय सहज ही मिल जाता है। प्रन्थ की रचना प्रधानतः अपनश भाषा के 'पज्झटिका और अलिल्लह' छन्द में हुई है। तथापि उस में पद्धडिया सोरठा, घसा, जाति नागिनी, विलासिनी और सोमराजी प्रादि छन्दों का प्रयोग हुआ है। काव्य की दृष्टि से प्रन्थ के कितने ही वर्णन सजीव हैं। रसों में श्रृंगार, वीर, करुण पोर शान्त रसों के पभिव्यंजक अनेक स्थल दिये हए हैं। श्री कृष्ण पौर कंस के युद्ध का वर्णन भी सजीव हुमा है। 'महाचंडचित्ता भाछिण्णगत्ता, धनुवाण हत्या सकुंता समत्था । पहारंति सुराण भज्जति धीरा, सरोसा सतोसा सहासा सत्रासा॥-हरिवंश पु० संधि ६०, ४ प्रचण्ड योद्धाओं के गात्र ट्रक-ट्रक हो रहे हैं, और धनुष बाण हाथ में लिये हुए भाला चलाने में समर्थ सूर प्रहार कर रहे हैं, परन्तु कोष, सन्तोष, हास्य और पाशा से युक्त धीरवीर योद्धा विचलित नहीं हो रहे हैं । युद्ध की भीषणता से युद्ध स्थल विषम हो रहा है, सैनिकों की मारो-मारो की ध्वनि से अंबर गूज रहा है-रथवाला रयवाले की भोर, अश्व वाला प्रश्ववाले की ओर, और गज, गज की मोर दौड़ रहा है, धानुष्क वाला धानुष्क को पोर झपट रहा है, वाद्य जोर से शब्द कर रहे हैं। घोड़े हिन हिना रहे हैं, और हाथी चिंघाड़ रहे हैं। इस तरह युद्ध का क वाला धानुक को और हा घोड़ हिन हिना रहे है सारा ही वर्णन सजीव शरीर की नश्वरता का वर्णन भी दृष्टव्य है : सबल राज्य भी तत्क्षण नष्ट हो जाता है। प्रत्यधिक धन से क्या किया जाय ? राज्य भी धनादिक से हीन और बचे खुचे जन समूह अत्यधिक दीनता पूर्ण वर्तन करते हुए देखे जाते हैं। सुखी बान्धव, पुत्र, कलत्र मित्र सदा किसके बने रहते हैं, जैसे उत्पन्न होते हैं जैसे ही मेघवर्षा से जल के बुलबुलों के समान विनष्ट हो जाते हैं। पौर फिर चारों दिशाओं में अपने निवास स्थान को चले जाते हैं, जिस तरह पक्षी रात्रि में एक जगह इकट्ठे हो जाते हैं और फिर चारों दिशाओं में अपने अपने निवास स्थान को चले जाते हैं, अथवा जिस प्रकार बहुत से पथिक (नदी पार करते हुए) नौका पर मिल जाते हैं फिर सब अपने अपने अभीष्ट स्थान को चले जाते हैं। इसी तरह इष्ट प्रिय जनों का समागम थोड़े समय के लिये होता है । कभी धन पाता है और कभी दारिद्र स्वप्न समान भोग पाते और नष्ट हो जाते हैं, फिर भी अज्ञानी जन इनका गर्व करते हैं। जिस यौवन के साथ जरा (बुढ़ापे) का सम्बन्ध है उससे किसको सन्तोष हो सकता है। बलु रम्जु वि णासइतक्खणेण कि किज्जह वहएण वि धणेण । रज्जु वि धणेण परिहीण होइ, णिविसेण वि दरीसह पयडुलोउ । ............."हण हण मार मारु पभरतहि । दलिय भरत्ति रेणु रणहि घायउ, पिसलुसउ लुद्धउ आयउ । रहबउ रहहु गयह गय धाविउ, घाणुक्कहु धाणुक्कु परायउ । तुरउ तुरंग कुलग्ग बिहत्थउ, असिवपसरह लागु भयपत्त । वजहि गहिरतूर यहिंसहि गुलु गुलंतु गयवरबहुदीसहि ।। -संषि ८६-१०
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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