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ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान आचार्य
सुहिबंधव पुत्त-कलत-मिस, वि कासुवि वीसह णिश्वत । जिम हुति भरत असेस तेम, बुब्बुध जलि घणि वरिसंति जेम । जिम सउणि मिलि विसरवर वसति, चाद्दसिणिय वसाणि अंति । जिस बहू पंथिय णावर चडंति, पुणि णिय णिय वासहु से बलंति । तिम इठु समागमु निवडणु, षणुहोइ होइ दालिदु पुणु । धता - सुविणासउ भोउ लहो धि पुणु, गब्बु करंति प्रयाण गर । संतोसुकवणु जोयण सियह, जह प्रत्थइ प्रणुलमाजरा ।
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- संधि - ६१-७
ग्रन्थकार का जहां लौकिक वर्णन सजीव है, वहां वीर रस का शान्त रस में परिणत हो जाना भी चित्ताकर्षक है । ग्रन्थ पठनीय और प्रकाशन के योग्य है। इसकी प्रतियां कारंजा, बडा तेरापंथी मन्दिर जयपुर और दिल्ली के पंचायती मन्दिर में है, परन्तु दिल्ली की प्रति अपूर्ण है ।
जयकीति मूल संघ देशीयगण होत गे गच्छ के विद्वान थे । जो पुस्तकान्वयरूपी कमल के लिये सूर्य के समान थे। और अनेक उपवास और चान्द्रायण व्रत करने में प्रसिद्ध थे। रामस्वामी प्रदत्तदान के अधिकारी ये चिक्कनसोगे का यह लेख यद्यपि काल निर्देश रहित है। और शान्तीश्वर वसदि के बाहर दरवाजे पर उत्कीर्णित है । सम्भवतः इनका - (जंन लेख सं० भा० २ १० ३५७ ) अनुमानिक समय ११०० ई० के लगभग हो सकता है।
ब्रह्मसेन प्रतिप
ब्रह्मसेन प्रतिप-मूल संघ, वरसेनगण और पोरिगच्छ के विद्वान थे। इनके शिष्य प्रार्यसेन और प्रशिष्य महासेन थे । ब्रह्मसेन बड़े विद्वान तपस्वी थे । अनेक राजा उनके चरणों की पूजा करते थे। महासेन के शिष्य चाह्नि राजने जो वाण वंश के थे, और केवल देवी के ग्रॉफिसर थे । उन्होंने शांतिनाथ, पार्श्वनाथ और सुपार्श्व तोर्थंकर की वेदियों को पौन्नवार्ड में त्रिभुवन तिलक नाम के चैत्यालय में बनवाया । उनके लिये शक सं १७६ (सन् १०५४ ई० ) में जमीन और मकान दान किये। इनका समय ईसा की ११वीं शताब्दी है ।
मुनिश्रीचन्द्र-
लाल बागड संघ और बलात्कारगण के प्राचार्य श्रीमन्दी के शिष्य थे । और धारा के निवासी थे । उन्होंने अपना पुराणसार वि० सं० १०५० (सन् १०२३) में बनाकर समाप्त किया है। रविषेण के पद्मचरित को टोका को भी उन्होंने वि० सं० १०८७ में धारा नगरी में राजा भोजदेव के राज्यकाल में बनाकर समाप्त किया है । तीसरी कृति महाकवि पुष्पदन्त के उत्तरपुराण का टिप्पण है, जिसे उन्होंने, सागरसेन नाम के संद्धान्तिक विद्वान से महापुराण के विषम पदों का विवरण जानकर और मूल टिप्पण का अवलोकन कर वि० सं०
१. जैन लेख [सं०] मा० २५० २२७ २. धारायांपुरि भोजदेव नृपते श्री मत्सागरसेनतो यतिपते मुक्त्यर्थं भवभीतिभीतजगता ॐ चारुपुराणसारममलं श्रीविक्रमादित्य संवत्सरे
राज्ये जयात्युच्चकैः । शाखा पुराणं महत् । श्रीनन्दि शिष्यो बुधः ।
श्री चन्द्रनामामुनिः ॥
(अशीत्यधिषं सहस्त्र पुराणसाराभिधानं समाप्तं । देखो पुराणसार प्रशस्ति
३. लालबागड श्री प्रवचनसेन पडितात्पद्मचरितस्सकरण ( तमाकर्ण्य ?) बलात्कारगण श्रीनन्द्याचार्यसस्कविशिष्येण श्री चन्द्रमुनिना श्रीमद्विक्रमादित्य संघरसरे समाशीत्यधिक वर्षं सहस्र श्रीमद्धाराणां श्रीमतो राज्य भोजदेवस्य ......। एवमिदं पद्मचरित टिप्पणं श्रीचन्द्रमुनिकृतं समाप्तमिति