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________________ ४१६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ पंजिका का रचना काल शक सं० १०१६ (वि० सं० ११५१) कार्तिक शुक्ला है। कर्म प्रकृति संस्कृत गद्य-यह भी इन्हीं को कृति है, जिसमें संक्षेप में कर्मसिद्धान्त का प्रतिपादन किया है । द्रव्य कर्म के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश भेदों का उल्लेख करते हुए मूल ज्ञानावरणादि पाठ और उत्तर १४८ प्रकृतियों के स्वरूप और भेदों का वर्णन किया है। प्रोर अन्त में पांच लब्धियों तथा चौदह गुणस्थानों का कथन किया है। अन्य इनको क्या कृतियां हैं यह अन्वेषणीय है। यह ईसा को १३ वीं शताब्दी के अन्तिम चरण के, और विक्रम को १४ वीं शताब्दो के विद्वान हैं। गोम्मटसार की कनड़ी टोकाकार केशववर्णी इन्हीं अभयचन्द्र के शिष्य थे। केशववर्णो ने गोम्मटसार की जोवतत्त्व प्रबोधिका कनडोवृत्ति भट्टारक धर्मभूषण के प्रादेशानुसार शक सं० १२८१ (सन् १३५६ ई०) में समाप्त को थो। भानुकीति सिद्धान्तदेव यह मूल संघ कुन्दकुन्दान्दय काणरगण तिन्त्रिणी गच्छ के विद्वान् प्राचार्य पद्यनन्दी के प्रशिष्य और मुनि चन्द्रदेव यमी के शिष्य थे। जो न्याय व्याकरण और काव्यादि शास्त्रों में पारंगत थे। मन्त्र तंत्र में बहुत चतुर थे। बन्दणिका तीर्थ के अधिपति थे जैसा कि तेवर तेप्प के शिलालेख के निम्न पद्य से प्रकट है : श्रीमन्मलपदादि-संघ-तिलके श्रीकुन्दकुन्दान्वये, काणूर-नाम-ाणोत्स-गरसशभगे-भतिमिश्रणी काहये। शिष्यः श्री मुनिचन्द्र देव यमिनः सिद्धान्त-पारङ्गयो , जीया बन्दणिका-पुरेश्वरतया श्री भानुकोतिम्मुनिः ।। इन भानुकीति सिद्धान्त देव को बिज्जलदेव की पुत्री अलिया ने शक वर्ष १०८१ के प्रमाथि संवत्सर की पूष शुक्ला चतुर्दशी शुक्रवार को, सन् ११५६ वि० सं० १२१३ में) होन्नेयास के साथ इस सुन्दर मन्दिर को भूमियों का दान दिया था। नागर खण्ड के सामन्त लोक गावुण्ड ने सत् ११७१ ई० (वि० सं० १२२८) में एक जैन मन्दिर का निर्माण कराया, और उसकी अष्टप्रकारी पूजा के लिये उक्त भानुकीति सिद्धान्त देव को भूमि दान की थी। शक १०६६ (सन् १९७७ ई० वि० स० १२३४) में सङ्क गावुण्ड देकि सेट्टि के साथ मिलकर एलम्बलिल में एक जिनमन्दिर बनवाया और शान्तिनाथ वसदि की मरम्मत तथा मुनियों के माहार दान के लिए उक्त भानुकीति सिद्धान्त देव को भूमि दान दिया। मुनिचन्द्र सिद्धान्त देव के शिष्य भानुकीतिद्वान्त देव को राजा एक्कल ने कनकजिनालय के साथ-साथ चालुक्य चक्री जगदेव राजा के राज्य में राजा एकतन् ११३६ (वि० सं०११६६) में भूमिदान दिया। इन सब उल्लेखों से ज्ञात होता है कि भानुकीति सिद्धान्तदेव उस समय प्रसिद्ध विद्वान थे । यह ईसा की १२वीं मोर विक्रम की १३वीं शताब्दी के विद्वान थे। मुनिचन्द्र मुनिचंद्र गुणवर्म द्वितीय के शिष्य थे। इन्होंने पपने पुष्पदन्त पुराण' में उभय कवि कमलगर्ग कहकर स्मरण किया है और महाबलि कवि (१२५४) ने नेमिनाथ पुराण में-'अखिल तर्क तंत्र मंत्र व्याकरण भरत काव्य नाटक प्रवीण' १. जैन लेख संग्रह ज०३ पृ० ११७ २. जैन लेख सं० भा०३ पृ. १५२ ३. वही भा० ३ ० १७० ४. जैन लेख सं० अ०३ पृ. ३१-३२
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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