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तेरहवीं और चीदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि
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लिखकर प्रशंसा की है। इनके उभय कवि विशेषण से मालूम होता है कि ये संस्कृत और कनदी दोनों भाषाओं के कवि और ग्रंथकर्ता होंगे, परन्तु अभी तक इनका कोई भी ग्रंथ उपलब्ध नहीं है सोदत्तिके शिलालेखों से जो शक संवत् १९५१ और सन् १२२६ के लिखे हुए हैं और जो रायल एशियाटिक सोसाइटी बाम्बे ब्रांच के जर्नल में मुद्रित हो चुके है। मालूम होता है कि से रराज कार्तवीर्य के राजगुरु थे । और गृहस्थ अवस्था में उसके पुत्र लक्ष्मीदेव को इन्होंने शस्त्र विद्या और शास्त्र विद्या दोनों की शिक्षा दी थी। देव के समय में ये उसके सचिव या मंत्री भी रहे हैं । यह बड़े हो बीर और पराक्रमी थे। इसलिए इन्होंने शत्रुओंों को दबाकर रट्टराज की रक्षा की थी सुगन्धवर्ती १२ का शासन लक्ष्मीदेव चतुर्थ की प्रधीनता में रट्टों के राजगुरु मुनिचंद्र देव के द्वारा होता था। इस कारण उन्हें रराज प्रतिष्ठाचार्य की उपाधि भी प्राप्त हुई थी। इनके समय में रट्टुराज के शांतिनाथ, नाग और मल्लिकार्जुन भी श्रामात्य रहे हैं। जो मुनिचंद्र के सहायक या परामर्शदाताओं में से थे। इसने स्पष्ट है कि मुनिचंद्र का समय शक सं० १०५१ सन् १२२६ (त्रि० सं० १२८६ ) है (जैन लेख सं० भा० ३ पृ० ३२२ से ३२६ तक )
श्रजितसेन
इस नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। उन सब में प्रस्तुत प्रजितसेन सेनगण के विद्वान आचार्य और तुलु देश के निवासी थे क्योंकि आर मंजरी की पुष्पिका में "श्री सेवगणयागण्य तपो लक्ष्मी विराजिताजितमेन देव यतीश्वर विरचितः शृंगार मंजरी नामालका रोयम् ।" - मेनगण का ग्रग्रणी बतलाया है।
इससे श्रजितसेन सेनगण के विद्वान थे यह सुनिश्चित है ।
प्राचार्य अजितसेन को दो रचनाएं उपलब्ध हैं। शृंगार मंजरी और अलंकार चिन्तामणि ।
श्रृंगार मंजरी - यह छोटा-सा अलंकार ग्रन्थ है। इसमें तीन परिच्छेद हैं, जिनमें सक्षेप में रस-रीति और अलंकारों का वर्णन है। यह ग्रथ अजितसेनाचार्य ने शीलविभूषणा राना विट्ठल देवी के पुत्र, 'राय' नाम से ख्यात सोमवंशी जैन राजा कामिराय के पढ़ने के लिये बनाया था जैसा कि उसकी प्रशस्तिर के निम्न पद्यों से प्रकट है :राशी विट्ठल देवीति ख्याता शीलविभूषणा ।
तत्पुत्रः कामिरायाख्यो 'राय' इत्येव विश्रुतः ॥४६
तद्भूमिपालपाठार्थमुदितेयमलंकिया ।
संक्षेपेण बुधेषा यद्धाश्रास्ति (?) विशोध्यताम् ॥४६
प्रस्तुत कामिराय सोमवंशी कदम्बों की एक शाखा वंगवंश के नाम से विख्यात है। पं० के भुजबली शास्त्र के अनुसार दक्षिण कन्नड जिले के सुदिप्रदेशान्तर्गत वंगवाडि पर इस वंश का शासन रहा है । उक्त प्रदेश के
लाव के विद्वान् मुनिय थे। जो सम्पूर्ण शास्त्रों में पारंगत ११७० ई० का है ।
१. एक अजितसेन द्रमिल संघ में नन्दि संध थे। हल्लिका का यह लेख संभवतः (लु० राइस) के अनु दूसरे अजितसेन आर्यसेन के शिष्य थे, बड़े विद्वान्, सौम्यमूर्ति राज्यमान्य प्रभावशाली वक्ता और बंकापुर विद्यापीठ के प्रधान आचार्य थे। गंगवंशी राजा मारसिंह के गुरु थे। मारसिंह ने बंकापुर में समाधि मरण द्वारा शरीर का परित्याग किया था। यह चामुण्डराय के भी गुरु थे, जो मारसिंह के महामात्य और सेनापति थे । गोम्मटसार के कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने उन्हें ऋद्धि प्राप्ती गणधर के समान गुणी और भुवन गुरु बतलाया है। इनका समय विक्रम की १०वीं शताब्दी का है।
तीसरे अजितसेन वे हैं जिनका उल्लेख मल्लिषेण प्रशस्ति में पाया जाता है। उक्त प्रशस्ति शक सं० १०५० में उत्कीर्ण की
गई है। उसमें अतिसेन को तार्किक और नैया िक बतलाया है। इनकी उपाधि वादोभ सिंह थी।
चौथे प्रतिसेन वे हैं । जिनका सन् १९४७ के लेख में उल्लेख है जिनका शिष्य बड़ा सर्शर पर्माद्धी था । उसका जेष्ठ पुत्र भीमप्पा मार्या लब्बा से दो पुत्र हुए। मगनीसेट्ठी, मारोसेट्ठी, मारीसेट्ठी ने दीर समुद्र में एक जिन मन्दिर बनवाया था। अजित सेन नाम के और भी विद्वान हुए हैं, जिनका फिर कभी परिचय लिखा जायगा ।
२. जैन ग्रंथ प्रशस्ति सं० वीर सेवामन्दिर भा० १, सन् १६४४ पृ० ६०