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तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के विद्वान, प्राचार्य और कवि जन्न कवि का स्मरण किया है। और मल्लिकार्जुन ने सूक्तिसुधाणंब में शान्तीश्वर चरित के पद्य उद्धत किए हैं । इस कारण इसका समय भी सन् १२३५ ई. के लगभग जान पड़ता है।
अभयचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती मूलसंघ, देशिय वन, पुस्तकमच्छ धुम्बकुवाव्यय कीगसेकसीप शाखा के श्रीसमुदाय में माघनन्दि भादरक हुए । उनके दो शिष्य थे, नेमिचन्द्र भद्रारक और अभयचन्द्र सैद्धान्तिक । प्रस्तुत अभयचन्द्र सैद्धान्तिक बालचन्द्र पण्डित देव के श्रुत गुरु थे' गोम्मटसार जीवकाण्ड की मन्द प्रबोधिका टीका में अभयन्द्र ने बालचन्द्र पण्डित देव का उल्लेख। किया है । अभयचन्द्र सूरि छन्द, न्याय, निघण्टु, शब्द, समय, अलकार और प्रमाण शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान थे। श्रत मुनि ने अभयचन्द्र सैद्धातिक को भावसंग्रह में शब्दागम, परमागम, मोर तर्कागम, का ज्ञाता, और सव वादियों को जीतने वाला बतलाया है । इन सब उल्लेखों से अभयचन्द्र के व्यक्तित्व का प्राभास मिलता है। प्रस्तुत प्रभयचन्द्र और बालचन्द्र वही हैं जिनकी प्रशंसा वेल्लर के शिलालेखों में की गई है । इनका स्वर्गवास शक वर्ष १२०१ सं० १२७६ में हुया है। प्रतः अभयचन्द्र ईसा की १३वीं सदी के विद्वान हैं । गोम्मट सार की कनड़ी टीका के कर्ता के शववर्णी इन्हीं अभयचन्द्र सूरि के शिष्य थे। इन्होंने अपनी कनड़ी टीका भ० धर्मभूषण की आज्ञानुसार शक सं० १२८१ (सन् १३५६ ई०) में की है। रचनाएं
प्रस्तुत प्रभयचन्द्र दर्शन शास्त्र के विद्वान थे। इन्होंने अकलंक देव के 'लघीयस्त्रय' की स्याद्वाद भषण' नामक तात्पर्य वृत्ति के प्रारम्भ में जिनेन्द्र के विशेषण के रूप में अकलंक और अनन्तवीर्य का नामोल्लेख किया है। प्रस्तुत अभयचन्द्र ने प्राचार्य प्रभाचन्द्र के न्याय कुमुदचन्द्र को देखकर उक्त वृत्ति बनाई थी। जैसा कि उनके 'प्रकलंक प्रभा व्यक्तम्' दाक्य से जान पड़ता है । यह प्रभाचन्द्र के बाद के विद्वान हैं।
इनकी बनाई हई गोम्मटसार जीवकाण्ड की मन्दप्रबोधिका टीका ३८३ गाथा तक ही उपलब्ध है। इस टीका में गोम्मटसार पंजिका टीका का उल्लेख निम्न शब्दों में है :
__ "यवा सम्मर्छन गर्भोपपावानाश्रित्य जन्म भवतीति गोम्मट पंजिका कारादीनामभिप्रायः।" (गो.जी. मन्द प्र०टीका गा०८३)। इस पंजिका टीका को १ प्रति उपलब्ध है। इस पंजिका के कर्ता गिरिकीर्ति हैं। यह पंजिका गोम्मटसार की रचना से सौ वर्ष बाद बनी है। जैसा कि उसकी निम्न प्रशस्ति गाथा से स्पष्ट है :
सोलहसहियसहस्से गयसककालेपवडमाणस्स । भावसमस्ससमत्ता कत्तियणंदीसरे एसा ।।
१. जैन शिलालेख सं० भा० ३ लेख ५२४ पृ० ३७१ २. गोम्मटसार जीवकाण्ठ टीका कलकत्ता संस्करण प० १५० ३. छन्दो-न्याय-निघण्टु-शब्द-समयालङ्कार पट्खण्डवागभूचक्रं विवृतं जिनेन्द्र हिमवजात-प्रमाणद्वयो। गङ्गा-सिन्धु-युगेन-दुर्मत-खगोर्वी भृद्भिदा यत् स्वधीचकाकान्त मतोऽभयेन्दु-यतिपः सिद्धान्त चक्राधिपः ।।
जैनलेख सं० भा० ३ ले० ५२४ पृ. ३७१ ४. सदागम-परमागम-तक्कागम निरवसेस वेदी ।।
विजिद-सयलण्णवादी जयउ चिर अभयमूरिसिद्धती ।। -मावसंग्रह प्रशस्ति ५. एपिग्राफिया कर्णटिका जिस्द ५ संख्या १३१-३३ १.जैन सेख सं० भा० ३ लेख नं० ५२४ पृ०३७१