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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २ विशालकीति पण्डितदेव को वैयावत्य से शब्दार्णवद्रका को रचना को थी। उस समय वहां शिलाहारबंशीय वीर भोजदेव का राज्य था। राजशेखर सूरि के 'चतुर्विशति-प्रबन्ध' में वणित विजयपुर नरेश कुतिभोज और सोमदेव द्वारा वणित वीर भोजदेव दोनों एक ही हैं। अत: वादीन्द्र विशालकीर्ति का समय सं० १२६० से १३०० के मध्य तक जानना चाहिए। दायरेख सेशक कोल्हापूर पास-पास जाना निश्चित है मुनि पूर्णभद्र यह मुनि मुणभद्र के शिष्य थे । इन्होंने अपनी कृति 'सुकमालचरिउ को अन्तिम प्रशस्ति में अपनी गुरु परम्परा का तो उल्लेख किया है किन्तु संघराण-गच्छादिक का कोई उल्लेख नहीं किया। गुजरात देश के सुप्रसिद्ध नागर मंडल के निवासी वीरसूरि के विनयशील शिष्य मुनिभद्र थे। उनके शिष्य कुसुमभद्र हुए, और कुसुमभद्र के शिष्य गुणभद्र मूनि थे, मीर गुणभद्र के शिष्य पूर्णभद्र थे। ग्रन्ध में कवि ने रचना काल का कोई उल्लेख नहीं किया। ऐसी स्थिति में समय का निश्चित करना कठिन है । आमेर शास्त्र भंडार की यह प्रति सं०१६३२ की प्रतिलिपि को हुई है। इससे मात्र इतना फलित होता है कि सुकमाल चरित की रचना सं० १६३२ से पूर्व हुई है। 'णेमिणाह चरिउ' के कर्ता कवि दामोदर ने अपने गुरु का नाम महामुनि कमलभद्र लिखा है। जो गुणभद्र के प्रशिष्य थे। और सूरसेन मुनि के शिष्य थे। यदि दामोदर कवि द्वारा उल्लिखित गुणभद्र और मुनि पूर्णभद्र के गुरु गणभद्र की एकता सिद्ध हो जाय तो इन पूर्णभद्र का समय विक्रम को १३ वीं शताब्दी का मध्यकाल हो सकता है। क्योंकि दामोदर ने नेमिनाथ चरित की रचना का समय सं०१२८७ दिया है, दामोदर गुजरात से सलपुर माये थे। और मूनिपूर्णभद्र भी गजरात देश के निवासी थे। प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम 'सुकमाल चरिउ' है । जिसमें छह संधियां हैं, जिनमें अवन्ति नगरी के सुकमाल श्रेष्ठी का जीवन परिचय अंकित है जिससे मालूम होता है कि उनका शरीर अत्यन्त सुकोमल था। पर वे उपसर्ग और परीषहों के सहने में उतने ही कठोर थे। उनके उपसर्ग की पीड़ा का ध्यान आते ही शरीर के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। परन्तु उस साधु की निस्प्टहता और सहिष्णुता पर प्राश्चर्य हुए बिना नहीं रहता, जब गीदड़ी और उसके बच्चों द्वारा उनके शरीर के खाए जाने पर भी उन्होंने पीड़ा का अनुभव नहीं किया, प्रत्युत सम परिणामों द्वारा नश्वर काया का परित्याग किया। ऐसे परीषहजयी साधु के चरणों में मस्तक अनायास झुक जाता है। गुणवर्म (द्वितीय) कवि का निवास कैडि नामक स्थान में था। इसके गुरु वही मुनिचन्द्र जान पड़ते हैं जो कार्तिवार्य नरेश के गुरु थे। कातिवीर्य 'अहितक्ष्मभृद्वज्र' सेनापति शान्तिवर्म कवि का पोषक था । गणाब्जवन कलहस, कवितिलक, मौर काव्यसत्कलाणव मुगलक्ष्मी आदि विशद थे। कवि की दो रचनाएं उपलब्ध हैं, पुष्पदन्त पुराण और चन्द्र नोथाष्टक पुष्पदन्त पुराण में वें तीर्थंकर का चरित्र चित्रण किया गया है। उसमें अपने से पूर्ववर्ती कवियों का स्मरण करते हए कवि ने जन्न कवि (सन् १२३० ई.) का गुणगान किया है। इससे स्पष्ट है कि कवि जन्य के बाद हुआ है। और सन् १२४५ ई० के मल्लिकार्जुन ने अपने 'सूक्तिसुधार्णव' में पुष्पदन्त पुराण के पद्य उद्धत किए हैं। इससे यह कवि मल्लिकार्जुन से पहले हुआ है। अतएव इसका समय सन् १२३५ ई० जान पड़ता है। कवि की रचना सुकर और प्रसाद गुणयुक्त है। कमलभव मूलसंध कुन्दकुन्दान्वय देशीगण और पुस्तक गच्छ के प्राचार्य मावनन्दि का शिष्य था । इसके दो विरुद थे, कवि कंजगर्भ,मौर सूक्तिसन्दर्भ गर्भ। कवि की एक मात्रकृति शान्तीश्वर पुराण है। इसने अपने से पूर्ववर्ती कवियों में
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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