________________
नेगी दौर पौवादी दीपालभानार्य और कति
४१३
लुईस राइस के अनुसार इस लेख का समय ११५४ ई० है। यही समय सन् ११५४ (वि० सं० १२११ नरेन्द्र कीति विद्य और उनके सधर्मा मुनिचन्द का है।
वासबसेन मुनि वासबसेन ने अपना कोई परिचय नहीं दिया । और न ग्रन्थ में रचना काल ही दिया। इनको एक मात्र कृति यशोधर चरित है। उसमें इतना मात्र उल्लेख किया है कि बागडान्वय में जन्म लेने वाले बासवसेन की यह कृति है-'कृति वासबसेनस्य वागडान्षय जन्मतः ।' ग्रंथ ८ सर्गात्मक एक खण्ड काव्य है । जिस में राजा यशोधर और चन्द्रमती का जीवन अंकित किया गया है । यशोधर का कथानक दयापूर्ण पोर सरस. रहा है । इसी से यशोधर के संबंध में दिगम्बर-श्वेताम्बर विद्वानों और प्राचार्यों ने प्राकृत संस्कृत भाषामें अनेक ग्रंथ लिखे हैं। वास्तव में ये काव्य दयाधर्म के विस्तारक हैं। इनमें सबसे पुराना काव्य प्रभंजन का यशोधर चरित है। इस चरित का उल्लेख कुवलयमाला के कर्ता उद्योतनसूरि (वि० सं०८३५ के लगभग) ने किया है । कविबासबसेन ने लिखा है कि पहले प्रभंजन और हरिषेण आदि कबियों ने जो कछ कहा है वह मुझ बालक से कसे कहा जा सकता है।
प्रेमी जी ने लिखा है कि विक्रम सं० १३६५ में गंधर्व ने पुष्पदन्त के यशोधरचारकोल का प्रसंग, विवाह मोर भवांतर कथन चरित में शामिल किया है उसका उन्होंने यथायस्थान उल्लेख भी करना है। कवि गंधर्व ने पहली संधि के २७ वें कडवक की ७९वीं पक्ति में लिखा है कि-'जं वासबसेणि पुबरइज, तं पेक्खवि गंधवण कहिउ' । इससे स्पष्ट है कि वासवसेन का यशोधर चरित पहले रचा गया था, उसे देखकर ही गंधर्व कवि ने लिखा है। इस उल्लेख से इतना स्पष्ट हो जाता है कि वासबसेन वि० सं० १३६५ से पूर्व वर्ती विद्वान है, उससे बाद के नहीं। संभवत: वे विक्रम की १३वीं शताब्दी के विद्वान हो।
यादीन्द्र विशालकीति बड़े भारी वादी थे । इन्हें पण्डित पाशाधर जी ने न्यायशास्त्र पढ़ाया था। वे तर्कशास्त्र में निपुण थे, और घारा या उज्जैन के निवासी थे। यह धारा या उज्जैन की गद्दी के भट्टारक थे इनके शिष्य मदनकोति थे। अपने गरु के मना करने पर भी मदनकीति दक्षिण देश की मोर कर्नाटक चले गए थे। वहां पर विद्वप्रिय विजयपुर नरेश कुन्तिभोज उनके पाण्डित्य पर मोहित हो गए। फिर वे वहां से वापिस नहीं लौटे । विशालकोति ने उन्हें अनेक पत्रों द्वारा प्रबुद्ध किया किन्तु वे टस से मस नहीं हुए। तब विशालकोति जी स्वयं दक्षिण की ओर गए। वे कोल्हापुर गये हों, पोर सम्भवतः उन्होंने मदनकीर्ति को साक्षात्प्रेरणा की हो, और उससे सम्प्रबुद्ध हुए हों । सोमदेव मुनि कृत शब्दार्णवचन्द्रिका की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि कोल्हापुर प्रान्तान्तर्गत प्रजुरिका नाम के गांव में शक सं०११२७ (वि० सं० १२६२) में श्री नेमिनाथ भगवान के चरण कमलों को प्राराधना के बल से और वादीभवजांकुश
१. सत्तूण जो जसहरो जसहर चरिएण जगवए पयो।
कलिमलपमंजणोच्चिय पर्मजणो आसि रायरिसी ।।कुवलयमाला २. प्रमंजनादिभिपूर्व हरिषेणसमन्वितः ।
यदुक्तं तत्कथं शक्यं मया बालेत भाषितुम् ।। यशोषरचरित ३. स्वस्ति श्रीकोल्लापुर देशान्तर्वार्जुरिकामहास्थानयुधिष्ठिरावतार महामण्डलेश्वर गंडादित्यदेव निर्मापित त्रिभुवनतिलक जिनालये श्रीमतरमपरमेष्ठि श्री नेमिनाथ श्रीपादपपारापनबलेन वादीमवज्रांकुश श्रीविशालकोति पंण्डित देव वयावृत्यतः श्री मच्छिलाहारकुलकमलमातंग्यतेज; पुजराजाधिराजपरमेश्वरसरममट्टारक पश्चिमचावति योवीर. भोजदेव विजयराज्ये सकवर्षकसहन कशतसप्तविंशति ११२७ तम कोषन सम्बत्सरे स्वस्तिसमस्तानवद्य विद्यारवति श्री पूज्यपादानुरक्तचेतसा श्रीमत्सोमदेवमुनीश्वरेण विररितेयं पादावन्द्रिका नाम वृत्तिरिति ।
-जैन ग्रन्थ प्रशस्ति सं० मा १ पृ. १६६