SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 424
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-मान ३ विक्रम वर्ष सपंचाशीति द्वावशशतेष्वतीतेषु । आश्विनसितान्त्य बिवसे साहसमल्ला परात्यस्य । श्रीदेवपाल नपतेः प्रमारकुलशेखरस्य सौराज्ये, नल कच्छपुरे सिद्धो ग्रन्थोयं नेमिनाथचैत्यगृहे ॥२०॥ १५ त्रिषष्टि स्मतिशास्त्र सटीक इसमें तिरेसठ शलाका पुरुषों का चरित जिनसेनाचार्य के महापुराण के प्राधार से अत्यन्त संक्षेप में लिखा गया है । इसे पंडित जी ने नित्य स्वाध्याय के लिये, जाजाक पण्डित की प्रेरणा से रचा था। इसकी पाद्यप्रति खण्डेलवाल कुलोत्पन्न धीनाक नामक श्रावक ने लिखी थी। कवि ने इस ग्रन्थ की रचना वि० सं० १२६२ में समाप्त की है, जैसा कि उसकी अन्तिम प्रशस्ति के निम्न पद्या से प्रकट है : प्रमारवंशवार्थीन्दुदेवपालनपात्मजे । श्रीमज्जैतुगिदेवेऽसि स्थाम्नावन्तीभवत्यलम् ॥१२ नलकच्छपुरे श्रीमन्नेमिचैत्यालयेऽसिधात् । ग्रन्थोऽयं द्विनववयेक विक्रमार्कसमाप्तये ॥१३ नित्यमहोद्योत---यह जिनाभिषेक (स्नान शास्त्र) श्रुतसागर सूरिका टीका के साथ प्रकाशित हो चुका है। १६ रत्नत्रय विधान-यह ग्रन्थ बहुत छोटा-सा है और गद्य में लिखा गया है, कुछ पद्य भी दिये हैं। इसे कवि ने सलखण पुर के निवासी नागदेव को प्रेरणा से, जो परमारवंशी राजा देव पाल (साहसमल्ल) के राज्य में शाक विभाग में (चुगी प्रादि टैक्स के कार्य में) नियुक्त था, उसकी पत्नी के लिये सं० १२८२ में बनाया था । जैसा कि उसकी प्रशस्ति के निम्न पद्यसे प्रकट है :-- विक्रमार्फ ध्यशीत्यप्रवाशाश्वशतात्यये। दशम्यां पश्चिमे (भागे कृष्णे प्रथतां कथा॥ पत्नी श्रीनागवेवस्य नंदयाद्धर्मेण यायिका। तासीद्रत्नत्रर्यावपिचरतीनां पुरस्म १७-१८ सागरधर्मामृत की भव्यकुमुवचन्द्रिका टीका सागारधर्म का वर्णन करने वाला प्रस्तुत ग्रन्थ पंडित जी ने पौरपाटान्वयी महीचन्द साधु की प्रेरणा से रचा था और उसीने इसकी प्रथम पुस्तक लिखकर तैयार की। इसकी टीका की रचना वि० सं० १२६६ में पोषबदी ७ शुक्रवार को हुई है । इसका परिमाण ४५०० श्लोक प्रमाण है। १९-२० प्रनगार धर्मामृत की भव्य कुमुद चन्द्रिका टीका-- कवि ने इस ग्रन्थ की रचना १५४ श्लोकों में की है। धणचन्द्र और हरिदेव की प्रेरणा से इसकी टीका की रचना बारह हजार दो सौ श्लोकों में पूर्ण की है, और उसे वि० सं०१३०० में कार्तिक सुदी ५ सोमवार के दिन समाप्त की थी। टीका पंडित जी के विशाल पांडित्य की द्योतक है। इसके अध्ययन से उनके विशाल प्रध्ययन का पता चलता है। माणिकचन्द ग्रन्थमाला से इसका प्रकाशन सन १६१६ में हमा था । मुलग्रन्थ और संस्कृत टीका दोनों ही अप्राप्य हैं। भारतीय ज्ञानपीठ को इस ग्रन्थको संस्कृत हिन्दी टीका के साथ प्रकाशित करना चाहिये । अन्य प्रमेय बहुल है। नरेन्द्रकीति त्रैविद्य--- मुलसंघ कोण्डकन्दान्वय देशीयगण पूस्तक गच्छ के प्राचार्य सागर नन्दि सिद्धान्त देव के प्रशिष्य और मुनि पडव अहनन्दि के शिष्य थे। जो तर्क,ध्याकरण और सिद्धान्त शास्त्र में निपुण होने के कारण विद्य कहलाते थे। इनके सघर्मा ३६ गुणमण्डित और पंचाचार निरत मुनिचन्द्र भट्टारक थे। इनका शिष्य देव या देवराज था। यह देवराज कौशिक मुनि की परम्परा में हुमा है। कडुचरिते के देवराज ने सूरनहल्लि में एक जिन मन्दिर बनवाया था। उसको होयसल देवराजने सूरनहल्लि' ग्रामदान में दिया था। अत: उसने सुरनहल्लि ४० होन में से १० होन इसके लिये निकाल दिये, और उसका नाम 'पार्श्वपुर' रख दिया। देवरान ने मुनिचन्द्र के पाद प्रक्षालन पूर्वक भूमिदान दिया २. संक्षिप्यता पुराणानि नित्य स्वाध्याय सिद्धये । इति पंडित जाजाकाद्विप्तिा रिकार में 1-त्रिषष्ठि स्मृतिशास्त्र
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy