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________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के विद्वान, प्राचार्य और कवि ४११ मुनिन्द्र के प्रनुरोध से बनाई थी । और वह हिन्दो ढोका के साथ वोर सेवामन्दिर से प्रकाशित हो चुकी है। ८ भूपाल चतुविशति टीका - यह भूपाल कवि के चतुविशति स्तोत्र की टीका है, जो उक्त विनयचन्द्र मुनि के लिये बनाई गई थी, और बम्बई से प्रकाशित हो चुकी है । E आराधनासार टीका - यह देवसेन के प्राकृत प्राराधवासार को ७ पत्रात्मक और सं० १५५१ को लिखी हुई संक्षिप्त टीका है, जो उक्त विनयचन्द्र मुनि के उपरोधसे रची गई है और आमेर के शास्त्र भंडार में उपलब्ध है. उसका आदि-अन्त भाग इस प्रकार है : प्रणम्य परमात्मानं स्वशक्त्याशाधरः स्फुट: । श्राराधनासारगूढ पदार्थां कथयाम्यहं ॥ १ विमलेत्यादि' विमलेभ्यः क्षीणकषायगुणेभ्योऽतिशयेन बिमला विकलतरा शुद्धतराः गुणा परमावगाढ सम्यग्दर्शनादयः । सिद्धं जीवन्मुक्तं जगत्प्रतीतं वा । सुरसेन वंदियं सहस्वामिभसेनाः स स्वामिकाः निज निज स्वामियुक्त चतुणिकाय वेवस्तथा देवसेन नाम्ना ग्रन्थकृता नमस्कृतमित्यर्थः । श्राराहणासारं सम्यग्दर्शनादी मुद्योतनाद्युपाय पंचकाराधना तस्याः स सम्यग्दर्शनादि चतुष्टयं तया तस्यै वा राधना लयोपादेय वत्तात् ॥११॥ विनयचन्द्रमुनेर्हता राशाधरकवीश्वरः । स्फुटमाराधनासारं टिप्पनं कृतवानिदम् ॥ उपलब्ध है। उपशम इव सूर्त सागरेन्द्रान्मुनीन्द्राऽदजनि दिनयचन्द्रः सस्कोकचन्द्रः । जगदमृत सगर्भाः शास्त्रसंदर्भगर्भाः शुचि चरितवरिष्णो र्यस्य धिग्वतिवाचः ।। एवमाराधनासार गूढार्थ (पद) विवृतिः । शिष्ये तं श्रेयोथिनो बोधयितुं कृतामता ॥1 श्री विनयचन्द्रार्थमित्याशाधर विरचिताराधनासार विवृत्तिः समाप्ता । शुभम् स्वस्ति श्रादिजिन प्रणम्य, सं० १५८१ छ । १० श्रमरकोश टीका- यह अमरसिंह के प्रसिद्ध कोष की टीका है जो अप्राप्य है । ११ क्रियाकलाप - इसकी ५२ पत्रात्मक प्रति ऐ० पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन बम्बई में १२ काव्यालंकार टीका- यह रुद्रट के काव्यालंकार की टीका है । १३ सहस्र नाम स्वोपज्ञविवृति सहित - यह ग्रन्थ अपनी स्वोपज्ञ विवृति और श्रुतसागर सूरि की टीका तथा हिन्दी टीका के साथ भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चुका है। इस टीका की प्रति मुनि विनयचन्द्र ने लिखी थी । १४ जिनयशकल्प सटीक - यह मूल ग्रन्थ प्रकाशित हो चुका है। परन्तु इसको स्वोपज्ञ टोका अभी प्राप्त है । ग्रन्थ में प्रतिष्ठासम्बन्धि क्रियाओं का विस्तृत वर्णन है। महाकवि आशाधर ने यह ग्रन्थ वि० सं० १२८५ . में परमरवंशी राजा देवपाल के राज्य में तल कच्छपुर के नेमिनाथ चैत्यालय में पापा साधु के अनुरोध से बनाकर समाप्त किया था। जैसा कि उसके प्रशस्ति पद्यसे प्रकट है। १. पूरी गाथा इस प्रकार है विमलयर गुसमिद्ध सिद्ध' सुरसेा वंदियं सिरसा । रामिण महावीरं वोच्छं आराहणासारं ॥ १ ॥ २. खांडिल्यान्वय भूषणास सुतः सागारधर्मरतो, वास्तव्य नलकच्छ चारुनगरे कर्त्ता परोपक्रियाम् । सर्वज्ञाचं नपा प्रदानसमयोद्योत प्रतिष्ठानरणी, पापा साधुरकायत्पुनरिमं कृत्वोपरोषं मुहुः ॥ - जिन यज्ञकल्प प्र०
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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