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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
ही धवलाटीका का लिखना प्रारम्भ किया था। जयधवला कार ने एक स्थान पर वप्पदेव का नाम लेकर अपने और उनके मध्य के मतभेद को बतलाया है :
णि सुत्तम्मि बध्यदेवा हरिय लिहिदुच्चारणाए अंतोमुहुत्त मिदि भणिदो ।
म्हेहि लिहिदुच्चारणाए पुण जहष्ण एगसमयो, उ० संखेज्जा समवाप्ति परुविदो ( जयध० १८५ )
धवला में व्याख्या प्रज्ञप्ति के दो उल्लेख निम्न प्रकार से उपलब्ध होते हैं । "लोगोवाद पदिद्विदोत्त विवाह पत्ति वयणादो" टीकाकार ने इस अवतरण से अपने अभिमत को पुष्ट किया है। धवला १४३
एक स्थान पर धवलाकार ने उससे अपने मत का विरोध दिखलाया है
एदेण वियाह पण्णत्ति सुसेण सह कथं ण विरोहो ? ण एवम्हादो तस्स पुधसुदस्स प्रायरियमेएण भेदमा वण्णस्स एयत्ताभावावो ॥"
( धवला ८०८)
इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि बप्पदेव और उनकी टीका व्याख्या प्रज्ञप्ति का अस्तित्व स्पष्ट है। टीका की भाषा प्राकृत थी । बप्पदेव ने अपने समय का कोई उल्लेख नहीं किया। खेद हैं कि ग्रन्थ अनुपलब्ध है। फिर भी अनुमान से डा० हीरालाल जी ने बप्पदेव का समय विक्रम की छठवीं शताब्दी बतलाया है। धवलाटीका से तो वह पूर्ववर्ती है ही । संभव है, वह सातवीं शताब्दी की रचना हो ।
महाकवि धनंजय महाकवि धनंजय - वासुदेव श्रीर श्रीदेवी के पुत्र थे। उनके गुरु का नाम दशरथ था । ये दशरूपक के लेखक से भिन्न हैं । ये गृहस्थ कवि थे। इनकी कविता में वैशिष्ट्य है। द्विसन्धान काव्य बनाने के कारण ये सि धान कवि कहलाते हैं। इस द्विसन्धान काव्य को राघव पाण्डवीय काव्य भी कहा जाता है क्योंकि इसमें रामायण और महाभारत की दो कथाओं का कथन निहित है । भोज (११वीं शती ईसवी के मध्य ) के अनुसार द्विसन्धान उभयालंकार के प्रकार का है - वाक्य प्रकरण तथा प्रबन्ध । प्रथम वाक्यगत श्लेष है, द्वितीय भनेकार्थं पाण्डवीय की तरह पूरा काव्य दो कथाओं का कहने वाला है।
विख्यात मगणवल्ली प्रामेऽथ विशेष रूपेण । श्रुत्वा तयोश्च पावें तमशेषं बप्पदेवगुरुः । १७३ अपनीय महाबन्धं षट्खण्डाच्छेष पंच खंडे तु । व्यारूपा प्रशांत च पण्ठं खंड च ततः संक्षिप्य ॥ १३४ षष्णां खंडानामिति निष्पन्नानां तथा कषायास्यप्राभृतकस्य च षष्ठि सहस्रप्रन्यप्रमाणयुताम् ॥ १७५ ध्यानि प्राकृतभाषारूपां सम्यक्पुरातन व्याख्याम् । अष्टसहस्र में थां व्याख्यां पञ्चाधिकां महाबन्धे || १७६ २. देखो, षट्खंडागम धवला० पु० १ प्रस्तावना पृ० ५३ २. नीत्वा यो गुरुणादिशो दशरथे नोपात्तवान्नन्दनः ।
श्रीवेच्या वसुदेवतः प्रतिजगन्यायस्य मार्गे स्थितः । तस्य स्थायि धनंजयस्य कृतितः प्रादुष्य दुच्यंशो गाम्भीर्यादिगुणापनोदविधिनेशम्भो निधल्लङघते ।। १४६ ।।
कारण होता है। यह तीन स्थिति है, तीसरा राघव