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________________ पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी के आचार्य भारिणी, और द्र तविलम्बित आदि छन्दों का प्रयोग किया है। कबि को उपजाति छन्द अधिक प्रिय रहा है। इस काव्य के प्रारम्भिक तीन सर्ग बहुत ही गरम हैं। रखना स्थल और रचना काल निजाम स्टेट का कोप्पल ग्राम जिसे कोपण भी कहा जाता है, जैन संस्कृति का केन्द्र था। मध्यकालीन भारत के जैनों में इसकी अच्छी ख्याति थी। और प्राज भी यह स्थान पुरातत्त्वविदों का स्नेहभाजन बना हुआ है। इसके निकद पल्लन को गुण्डु नाम को पहाड़ी पर अशोक के शिलालेख के समीप में दो पद चिन्ह अंकित हैं। उनके नोचे पुरानी कनडी भाषा में दो लाइन का एक शिलालेख है। जिसमें लिखा है कि 'चावय्य ने जटासिंह नन्द्याचार्य के पदचिन्हों को तैयार कराया था। किसी महान व्यक्ति की स्मृति में उस स्थान पर जहां किसी साधु वगैरह ने समाधिमरण किया हो। पद चिन्ह स्थापित करने का रिवाज जैनियों में प्रचलित है। कुवलय माला के कर्ता उद्योतन सूरि (७७८ ई.) ने और पुन्नाट संघी जिनसेन (शक सं० २०५) ने वि० सं०८४० के जटिल कवि का और उनके ग्रन्थ का उल्लेख किया है। १७८ ई० में चामुपडराय ने भी उल्लेख किया है। और ईसा की ११वीं शताब्दी के कवि धक्लि ने जटिल मुनि और वरांगचरित का उल्लेख किया है। इनके अतिरिक्त पम्प (६४१ ई.) ने, नयसेन (१११२ ई०) पाच पंडित (१२०५ ई०) जनाचार्य (१२०९ ई०), गुणवर्म (१२३० ई.) पुष्पदन्त पुराण के कर्ता कमल भव' (१२३५ ई०) और महावल (१२४५) ई० प्रादि ग्रन्थकारों ने अपने अपने ग्रन्थों में जटिल कवि और वराँगचरित का उल्लेख किया है इससे कवि की महत्ता का सहज ही पता चल जाता है। साथ ही इन सब उल्लेखों से उनके समय पर भी प्रकाश पड़ता है । डा० ए० एन० उपाध्याय ने बरांगचरित की प्रस्तावना में जटासिंह नन्दि का समय ईसा की सातवीं शताब्दी का अन्त निर्धारित किया है, क्योंकि शकसं०७०५ में हरिवंश पुराणकार ने उसका उल्लेख किया है। शुभनन्दी-र विनन्दी यभनन्दी-रविनन्दी नामक दोनों मुनि अत्यन्त तीक्ष्ण बुद्धि मुनि और सिद्धांत शास्त्र के परिज्ञानी थे। बप्पदेव गुरु ने समस्त सिद्धान्त का विशेष रूप मे अध्ययन किया था। यह व्याख्यान भीमरथि और कृष्ण मेख नदियों के बीच प्रदेश उत्कलिका ग्राम के समीप मगणवल्ली ग्राम में हुआ था। भीमरथि कृष्णानदो की शाखा है और इनके बीच का प्रदेश अब बेलगांव व धारवाड कहलाता है। वहीं बप्पदेव गुरु का सिद्धान्त अध्ययन हना होगा। इस अध्ययन के पश्चात उन्होंने महाबंध को छोड़ कर शेष पांच खंण्डों पर व्याख्याप्रज्ञप्ति नाम को टीका लिखी। पश्चात् उन्होंने छठे खण्ड को संक्षिप्त पाख्या भी लिखी। वीरसेनाचार्य ने बप्पदेव की व्याख्या प्रज्ञप्ति को देखकर १. जटासिंह नन्दि आचार्य रदब चावयं गाडिसिदो। हैदराबाद आत्कयोलाजिकल सीरीज सं० १२ (मन् १९३५) में सी. आर कृष्णन् चारलू लिखित कोपवल्ल के कन्नड़ शिलालेख । २. एवं व्यापान क्रममावान् परमगुरु परम्परया। गच्छन सिद्धान्तो द्विविधोरपति निशितबुद्धिभ्याम् । १७१ शुभ-रवि-नन्दि मुनिभ्वा भौमथि-कृष्णमेखयोः मरितोः । मध्यमविषयगमणीयो कलिकानाम सामीप्यम् ॥१७२
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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