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________________ १३६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ जटासिंह नन्दी सिंह नन्दी नाम के अनेक विद्वान हो गये हैं। उनमें वे सिंहनन्दो सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। जिनका उल्लेख बाद के शिलालेखों में मिलता है और जिनका कर्नाटक की इतिहास परम्परा के साथ घनिष्ट सम्बन्ध पाया जाता है। जिन्होंने ईसा की दूसरी शताब्दी में गंगवंश की नींव डालने में दो अनाथ राजकुमारों की सहायता की थी। एक सिहनन्दि की समाधि का उल्लेख श्रवण वेलगोल के शिलालेख में उत्कीर्ण है, जो शक सं०६२२ ई. सन् ७०० के लगभग हए हैं। पर इन दो सिंहनन्दियों और अन्य पश्चाद्वर्ती सिंह नन्दियों से प्रस्तुत सिंहनन्दी भिन्न विद्वान ही जान पड़ते हैं। क्योंकि उनके साथ 'जटा' विशेषण लगा, होने के कारण वे इनसे बिल्कुल जूदे हैं। यह कर्नाटक के मादिवासी थे। पर वे कर्नाटक में किस प्रान्त के अधिवासी थे। यह कुछ ज्ञात नहीं हया। प्राचार्य जिनसेन ने उनका स्मरण करते हुए लिखा है कि जिनकी जटारूप प्रबल युक्तिपूर्ण वृत्तियां-टीकाय काव्यों के अनूचिन्तन में ऐसी शोभायमान होती थीं, मानों हमें उन काव्यों का अर्थ ही बतला रही हों। ऐसे बे जटासिंह नन्दी प्राचार्य हम लोगों की रक्षा करें।' आदिपुराणकार ने उनका केवल स्मरण ही नहीं किया किन्तु उनके बरांगचरित से भी कुछ सामग्री ली है। जिस प्रकार उत्तम स्त्री अपने हस्त-मुख पाद आदि अंगों के द्वारा अपने पापके विषय में अनुसरण उत्पन्न करती रहती है उसी प्रकार वरांगचरित की अर्थपूर्ण वाणी भी अपने समस्त छन्द, अलंकार रीति आदि अंगों से अपने प्रापके विषय में किस मनुष्य के गाव अनुराग को उत्पन्न नहीं करती। कवि की एकमात्र कृति वरांगचरित उपलब्ध है,, कर्ता ने उसे चतुर्वर्ग समन्वित सरल शब्द और अर्थ गम्फित धर्म कथा कहा है। यह एक सुन्दर काव्य-ग्रन्थ है, ग्रन्थ में ३१ सर्ग हैं और श्लोकों की संख्या १८०५ है । (रचना प्रसाद गुण से युक्त है इस काव्य में तीर्थकर नेमिनाथ तथा कृष्ण के समकालिक 'वरांग' नामक पुण्य पुरुष को कथा का अंकन किया गया है। काव्य में नगर, ऋतु, उत्सव, क्रीड़ा, रति, विप्रलम्भ, विवाह, जन्म, राज्याभिषेक युद्ध, विजय आदि का वर्णन महाकाव्य के समान किया है। कथा का नायक धीरोदत्त है। तत्त्व निरूपण और जैन सिद्धान्त के विभिन्न विषयों का प्रतिपादन इतना अधिक किया गया है कि उससे पाठक का मन ऊब जाता है। कवि ने काव्य को सर्वांग सुन्दर बनाने का प्रयत्न किया है। रस और प्रलंकारों की पूट ने उसे अत्यन्त सरस बना दिया है। कवि ने तेरहवं सर्ग में बीभत्स रस का और चौदहवें सर्ग में वीर रस का सुन्दर एवं सांगोपांग वर्णन किया है। २३३ सर्ग में जिन मन्दिर और जिन बिम्ब निर्माण, पूजा और प्रतिमा स्थापना, पूजा का फल और दानादि का वर्णन किया है। २५वें, २६वें सर्ग का मुख्य कथा से कोई सम्बन्ध नहीं है । कवि पर अश्वघोष की रचनामों का प्रभाव-सा दृष्टिगोचर होता है। वरांगचरित में दक्षिण भारत की सामाजिक और राजनीतिक परिस्थिति का अच्छा चित्रण किया गया है। और जनेतर देवी-देवतामों, वेदों के याज्ञिक धर्म की और पुरोहितों के विधि विधान की खूब खबर ली है। राजामों पर उनका क्रोध कुछ प्रभाव अंकित नहीं करता। जैन मंदिरों, मूर्तियों और जैन महोत्सवों का भी अच्छा चित्रण किया है। इस काव्य में वसन्ततिलका, पुष्पित ग्रा, प्रहर्षिणी, मालिनी, भुजंगप्रयात, वंशस्थ, अनुष्टुप, माल १. काव्यानुचिन्तने यस्य जटाः प्रबलवृत्तयः । अर्थात् रसानुवदन्तीय जटाचार्यः स नोऽवदात् ।। (आदि पु० १-५०) २. वरांगणेव सर्वाङ्गवरान चरितार्थवाक् । कस्वनोत्पादयेद गाळमनुराग स्थगोचरम् ॥ हरिवंशपुराण १-३५ ३. कायके प्रत्येक सर्ग की पुष्पिका-इति धर्म कथोद्देश चतुर्वर्ग समन्विते, स्फुट शब्दार्थ संदर्भ वसंग परिताविते ।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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