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________________ पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी के आचार्य १३५ पद्यानुवाद हिन्दी में रचे गये हैं। संस्कृत में भी पद्यानुवाद तथा अनेक टीकाएं रची गई हैं। यह प्राचीन महत्त्वपूर्ण स्तोत्र हैं। कल्याण मन्दिर स्तोत्र और भक्तामर स्तोत्र इन दोनों स्तोत्रों का तुलनात्मक अध्ययन करने से कल्याण मन्दिर की अपेक्षा भक्तमर स्तोत्र में कल्पनाओं का नवीनीकरण और चमत्कारात्मक शैली पाई जाती है। भवता. मर स्तोत्र में बतलाया है कि-सूर्य तो दूर रहा, जब उसकी प्रभा ही तालाबों में कमलों को विकसित कर देती है उसी प्रकार हे प्रभो! प्रापका यह स्तवन तो दूर ही रहे, पर आपके नाम का कथन ही समस्त पापों को दर कर देता है। जैसा कि उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है : प्रास्ता तवस्तवनमस्तसमस्तदोष, त्वत्संकथापि जगतां वरतानि हन्ति दूरे सहस्रकिरणः कुरुते, प्रभव पाकरेषु जलजानि विकासभाफिज ।। कल्याण मन्दिर स्तोत्र में बीजरूप उक्त कल्पना का विस्तार पाया जाता है। कवि कहता है कि जब निदाघ (ग्रीष्मकाल) में कमल से युक्त तालाब की सरसवायु ही तीव्र आताप से संतप्त पथिकों की गर्मी से रक्षा करती हैं, तब जलाशय की बात ही क्या ? इसी तरह जब आपका नाम ही संसार के ताप को दूर कर सकता है तव पापके स्तवन की सामथ्र्य का क्या कहना ? प्रास्तामचिन्त्यमाहिमा जिनांस्तवस्ते नामापि पाति भवतो भवतो अगन्ति । तीव्रातपोपहतकान्थजनान्निदाधे प्रीणाति पद्यसरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥७ संभव है कवि ने इसे सामने रखकर कल्याण मन्दिर की रचना की हो। यदि यह कल्पना ठोक है तो कल्याण मन्दिर इसके बाद की रचना होगी । मानतुग की दूसरी रचना 'भयहर' स्तोत्र है। जो प्राकृत भाषा के २१ पद्यों में रचा गया है पौर जिसमें भगवान पार्श्वनाथ का स्तवन किया गया है। डा० विण्टरनित्स ने इसका समय ईसा की तोसरी शताब्दी माना है। परन्तु मूनि चतुर विजय ने इनका समय विक्रम की सातवीं सदी बतलाया है। ब्रह्मचारी रायमल्ल कृत 'भक्तामरवृत्ति' में लिखा है--कि मानतू ग ने ४६ सांकलों को तो तोड़कर जैन धर्म की प्रभावना की 1 तथा राजा भोज को जैन धर्म का श्रद्धालु बनाया। दूसरी कथा भट्टारक विश्वभूषण के भक्तामर चरित में है। इसमें भोज, भत हरि, शुभ्रचन्द्र, कालिदास, धनंजय, वररुचि और मानतुग को समकालीन लिखा है। जो ऐतिहासिक दृष्टि से चिन्तनीय है। मानतुग को श्वेताम्बर आख्यानों में पहले दिगम्बर और बाद में श्वेताम्बर बतलाया है। इसी परम्परा के माधार पर दिगम्बर लेखकों ने पहले उन्हें श्वेताम्बर और बाद में दिगम्बर लिखा है। चरित भी १४वीं शताब्दी से पूर्व का मेरे देखने में नहीं पाया। ऐसी स्थिति में इस विषय पर विशेष अनुसन्धान की पावश्यकता है। जिससे उसका सही निर्णय किया जा सके। क्योंकि स्तोत्र पुराना और गम्भीर अर्थ का द्योतक है, पर सातवीं शताब्दी का समय 'भयहर स्तोत्र' के कारण बतलाया गया जान पड़ता है। १ History of Indian Literature Vo1 11 Po. 549 २. जैन स्तोत्र सन्दोह, द्वितीय भाग की प्रस्तावना पृ० १३ ३. ?सका अनुवाद पं. उदयलाल काशलीलाल द्वारा प्रकाशित हो चुका है। ४. यह कथा पं नाथूराम जी प्रेमी द्वारा बम्बई से १६१६ में प्रकाशित भक्तामर स्तोत्र की भूमिका में लिखी है।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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