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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ मानतुंग सूरि की दो रचनाएं उपलब्ध हैं । भक्तामर स्तोत्र और भयहर स्तोत्र । इनमें से प्रथम रचना संस्कृत के बसन्ततिलका छन्द में रची गई है। इस स्तोत्र में उसका आदि पद 'भक्तामर' होने से इसका यह नाम रूढ़ हो गया है। इसी तरह कल्याण मन्दिर और विषापहार स्तोत्र भी अपने उक्त यादि पद के कारण कल्याण मन्दिर और विषापहार नामों से ख्यात है । भक्तामर स्तोत्र में ४८ पद्य हैं। प्रत्येक पद्म में काव्यत्व रहने के कारण ये ४८ पद्य काव्य कहलाते हैं । किन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय में ४४ पद्य हो माने जाते हैं। इसका कारण यह है कि अशोक वृक्ष, सिंहासन, छत्रत्रय और नातियों के दोनों तो ग्रहण कर लिया है। किन्तु पुष्पवृष्टि, भामण्डल, दुन्दुभि श्रौर दिव्यध्वनि इन चार प्रतिहार्थी के ज्ञापक पद्यों को निकाल दिया है । किन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय की कुछ पाण्डुलिपियों में श्वेताम्बर सम्प्रदाय द्वारा निष्कासित और प्रतिहार्य सम्बोधक चार नये पद्य और जोड़ दिये हैं । इस कारण पद्मों की कुल संख्या ५२ हो गई है। जो ठीक नहीं है । वास्तव में इस स्तोत्र में ४८ ही पद्य हैं, जो मुद्रित और हस्तलिखित पाण्डुलिपियों में मिलते हैं । दिगम्बर सम्प्रदाय में भक्तामर स्तोत्र के पठन-पाठन का खूब प्रचार है। इस स्तवन में श्रादि ब्रह्मा आदिनाथ को स्तुति को गई है। इसीलिए इसका नाम आदिनाथ स्तोत्र प्रचलित है । कवि अपनी नम्रता दिखाते हुये कहता है कि- 'हे प्रभो ! अल्पज्ञ और बहुतज्ञ विद्वानों द्वारा हंसी का पात्र होने पर ही तुम्हारी भक्ति ही मुझे मुखर बनाती है। वसन्त में कोकिल स्वयं नहीं बोलना चाहती, प्रत्युत श्राश्रमंजरी ही उसे बलात् कूजने का निमन्त्रण देती हैं यथा अल्प भुतं श्रुतवतt परिहासधाम, त्वक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् । rathe feast मधुरं विरौति तचाचूतकलिका निकरक हेतुः ।। ६ या मानगाचार्य कहते हैं कि हे जगत के भूषण ! हे जोवों के नाथ ! आपके यथार्थ गुणों से श्रापका स्तवन करते हुये भक्त यदि आपके समान हो जाय तो इसमें कोई श्राश्चर्य नहीं है ऐसा होना ही चाहिये। क्योंकि स्वामी का यह कर्तव्य है कि वह अपने सेवक को समान बना ले। नहीं तो उस स्वामी से क्या लाभ है जो अपने प्राश्रितों को अपने वैभव से अपने समान नहीं बना लेता । " afa श्रपने प्राराध्य देव की जितेन्द्रियता का चित्रण करते हुए कहता है कि-प्रलयकाल की वायु से बड़ेबड़े पर्वत चलायमान हो जाते हैं पर सुमेरु पर्वत जरा भी चलायमान नहीं होता। इसी प्रकार देवांगनाओं के सुन्दर रूप लावण्य को देखकर ऋषि-मुनि देव-दानव आदि के चित्त चलायमान हो जाते हैं, पर आपका चित्त रंचमात्र भी विकार युक्त नहीं होता । श्रतः श्राप इन्द्रियविजयी होने से महान् बोर हैं। चित्र किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभिनतं मनागपि मनो न विकारमार्गम् । कल्पान्तकालमरुता चलिता चलेन किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित् ।। १५ कवि आराध्य देव का महत्व स्थापित करते हुए कहता है कि जो ग्रापके इस स्तोत्र का पाठ करता है उसके मत्त हाथी, सिंह, वनाग्नि, साँप, युद्ध, समुद्र, जलोदर और बंधन यादि से उत्पन्न हुआ भय नष्ट हो जाता है --- आपके भक्त को यघ बन्धन जन्य कष्ट नहीं सहन करना पड़ता। बड़ी से बड़ी बेड़ियां और विपत्तियां भी नष्ट हो जाती हैं। मत द्विपेन्द्रमृगराज दवानलाहि संग्राम वारिधि महोवर बन्धनोत्थम् ।। तस्याशुनाशमुपयाति भयंभियेव वस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ॥ ४७ इस स्तोत्र की रचना इतनी लोकप्रिय रही है कि उसके प्रत्येक पद्य के श्राद्य या अन्तिम चरण को लेकर समस्या पूर्यात्मक स्त्रोत रचे जाते रहे हैं। इस स्तोत्र की महत्ता के सम्बन्ध में अनेक कथाएं प्रचलित हैं । और अनेक १. नात्यद्भुतं भुवन भूषण ! भूतनाथ ! भूतं भुविभवन्तमभिष्टुवन्तः । तुल्या भवन्ति भवतोननु तेन किं वा भूस्वाश्रितं यह नात्मसमं करोति ॥ ६
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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