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________________ जन धर्म का प्राचीन इतिहास पात्रस्वामी ईसा की छठी शताब्दी के उत्तरार्ध और ७वीं शताब्दी के पूर्वार्ष के विद्वान होना चाहिए। अनन्तवीर्य मनन्तवीर्य (प्रतिवद्ध)-इनका उल्लेख अकलंक देव ने तत्त्वार्थवातिक पृष्ठ १५४ में वैक्रियिक मौर आहारक शरीर में भेद बतलाते हुए किया है,-पोर बतलाया है कि-'क्रियिक शरीर का क्वचित प्रतिधात भो देखा जाता है। इसके समर्थन में उन्होंने अनन्तवीर्य यति के द्वारा इन्द्र को शक्ति का प्रतिघात करने की घटना का उल्लेख किया है...(अनन्त वीर्य यतिना चेन्न-वीर्यस्य प्रतिघात श्रुतेः स प्रतिघात सामर्थ्य वैक्रिमिकम् । (तत्वा० वा. पृ० १५४) सम्भवतः इनका समय छठवी-सातवीं शताब्दी हो; क्योंकि प्रस्तुत अनन्तवीर्य अकलंक देव से तो पूर्ववर्ती हैं ही। प्रकलंक देव का समय पं० महेन्द्र कुमार जी न्यायाचार्य ने सिद्धि-विनिश्चय की प्रस्तावना में ई० ७२० से ७८०वि० सं० ६३७ सिद्ध किया है। (देखो, उक्त प्रस्तावना) मानतुंगाचार्य मानतुगाचार्य-अपने समय के सुयोग्य विद्वान थे। प्रभावक चरित में इनके सम्बन्ध में लिखा है कि यह काशी देश के निवासी मोर पनदेव के पुराहो इन्होने दिगम्बर मुनि से दीक्षा ली थी, और इनका नाम चारुकीति महाकीर्ति रखा गया । अनन्तर एक श्वेताम्बर सम्प्रदाय की अनुयायिनो श्राविका ने उनके कमण्डलु के जल में त्रस जीव बतलाये, जिससे उन्हें दिगम्बर चर्या से विरक्ति हो गयो और जितसिंह नामक श्वेताम्बराचार्य के निकट दीक्षित होकर श्वेताम्बर साधु हो गए। और उसी अवस्था में भक्तामर की रचना की। प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने क्रियाकलाप की टीका के अन्तर्गत भक्तामर स्तोत्र टीका की उत्थानिका में लिखा है मानतुग नाभा सिताम्बरो महाकविः निर्गन्याचार्यवयरपनीतमहाव्याधि प्रतिपन्न निर्ग्रन्थ मार्गो भगवन कि क्रियतामितिब्वाणो भगवता परमात्मनो गुणगण स्तोत्र विधीयतामित्याविष्टः भक्तामरेत्यादि ।" इसमें कहा गया है कि-मानतुग श्वेताम्बर महाकवि थे। एक दिगम्बराचार्य ने उनको व्याधि से मुक्त कर दिया, इससे उन्होंने दिगम्बर मार्ग ग्रहण कर लिया और पूछा-भगवन् ! अब क्या करूं? प्राचार्य ने माज्ञा दी कि परमात्मा के गुणों का स्तोत्र बनायो, फलतः मादेशानुसार भक्तामर स्तोत्र का प्रणयन किया गया। इस तरह परस्पर में विरोधी आख्यान उपलब्ध होते हैं । यह विरोध सम्प्रदाय व्यामोह का ही परिणाम है, वस्तुतः मानतुंग दोनों ही सम्प्रदायों द्वारा मान्य हैं। इनके समय-सम्बन्ध में भी दो विचार धाराएं प्रचलित हैं-भोजकालोन और हर्षकालोन । किन्तु ऐतिहासिक विद्वान मानतुंग को स्थिति हर्षवर्धन के समय की मानते हैं । डा. ए. बी. कोथ ने मानतुग को वाण कवि के समकालोन अनुमान किया है। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ विद्वान पं० नाथूराम प्रेमी ने भा मानतुंग को हर्षकालीन माना है। इस सब कथन पर से भक्तामर' स्तोत्र ७वीं शताब्दी की रचना है।" १. प्रभावक चरित, सिंधी जैन ग्रन्थमाला, अहमदाबाद तथा कलकत्ता सन् १९४० मानतुग सूरि चरितम् पृ० ११२-११७ । २. क्रिया कलाप संपन्नालाल सोनी दि० जैन सरस्वती भवन झालरापाटन, वि० सं० १६६३ भक्तामर स्तोत्र को उत्थानिका । ३, ए हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर, लन्दन १६४१ पृ० २१४-१५ । ४. भक्तामर स्तोत्र, जैन वन्थ लाकर कार्यालय, बम्बई, सन् १९१६ पृ. १२॥ ५. देखो, स्मारिका, भारतीय जन माहित्य संसद १६६५ ई०, मामतुग शीर्षक डालनेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य का निबन्ध ।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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