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________________ पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य १२५ यतिवृषभं की दूसरो रचना पंतलोयपण्णत्तो' है। इसके अन्त में दो गाथाएं निम्न प्रकार पाई जाती हैं । जिनवर वृषभ को, गुणों में श्रेष्ठ गणधर वृषभ को, तथा परिषहों को सहन करने वाले और धर्मसूत्रों के पाठकों में श्रेष्ठ ऐसे यतिवृषभ को नमस्कार करो। भूणिस्वरूप और षटकरणस्व रूप का जितना प्रमाण है त्रिलोकप्रज्ञप्ति का उतना ही, आठ हजार श्लोक प्रमाण है । पणमह जिणवर बसहं गणहर बसहं सहेष गुणहर वस । वरुण परिसवसहं अविवसहं धम्यमुत्त पाढर वसह ॥ चुष्णि सरूवस्थं करण सरुव पमाण होइ कि जसं । घट्टसहस्स पाणं तिलोयपण्ण तिणामाए ॥८१ इससे स्पष्ट है कि तिलोयपष्णत्ति के कर्ता और चूर्णि सूत्रों के कर्ता प्रस्तुत यतिवृषभ ही हैं। जिनका उल्लेख इन्द्रनन्दि ने किया है । तिलोपणत्ति एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है, उसमें महावीर के बाद के इतिहास की बहुत सो सामग्री दो हुई है जो काल गणना (श्रुत परम्परा - राजवंश गणना) दी है वह प्रामाणिक हैं। उसे यहां संक्षेप में दिया जाता है, पश्चाद्वर्ती ग्रन्थकारों ने उसका अनुसरण किया है । जिस दिन भगवान महाबोर का निर्माण (मोक्ष) हुआ, उसो दिन गौतम गणधर को केवलज्ञान हुआ, श्रीर उनके सिद्ध होने पर सुधर्मस्वामी केवली हुए । उनके मुक्त होने पर जंबूस्वामी केवलो हुए । जंबूस्वामी के मोक्ष जाने के बाद कोई अनुबद्ध केवली नहीं हुआ । इनका धर्मप्रवर्तन काल ६२ वर्ष है । केवलज्ञानियों में अंतिम श्रीधर हुए, जो कुण्डलगिरि से मुक्त हुए। श्रीर चारण ऋषियों में अन्तिम सुपार्यचन्द्र हुए। प्रज्ञाश्रमणों में अन्तिम बहरजस या वज्रयश, और अवधिज्ञानियों में अन्तिम श्री नामक ऋषि और मुकुटधर राजानों में ग्रन्तिम चन्द्रगुप्त ने जिन दीक्षा ली। इसके बाद कोई मुकुटधर राजा ने दीक्षा ग्रहण नहीं की। नन्दि (विष्णु नदि) नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाहु ये पांच चौदह पूर्वी और बारह अंगों के धारण करने वाले हुए। इनका समय सौ वर्ष है । इनके बाद श्रौर कोई श्रुत केवलो नहीं हुआ । विशाख, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिसेन, विजय, बुद्धिल्ल, गंगदेव और सुधमं ( धर्मसेन) ये ग्यारह श्रंग और दश पूर्व के धारी हुए। परम्परा से प्राप्त इन सबका काल १८३ वर्ष है । नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन, और कंस ये पांच आचार्यं ग्यारह अंग के धारी हुए, इनका काल २२० वर्ष होता है । इनके बाद भरत क्षेत्र में कोई मांगों का धारक नहीं हुआ । सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहार्यं ये आचारांग के धारक हुए। इनके अतिरिक्त शेष ग्यारह प्रग चौदह पूर्व के एक देश धारक थे। इनके पश्चात् भरत क्षेत्र में कोई ग्राचारांगधारी नहीं हुआ । राज्यकाल गणना का भी उल्लेख किया है। यद्यपि वर्तमान तिलोयपण्णत्ती में कुछ भ्रंश प्रक्षिप्त है । जिसके लिये उसकी प्राचीन प्रतियों का अन्वेषण आवश्यक है। फिर भी उपलब्ध संस्करण को दृष्टि से उसका रचना काल ५वीं शताब्दी का मानने में कोई हानि नहीं हैं। विषय वर्णन की दृष्टि से ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी है । यतिवृषभ के सामने कितना हो प्राचीन साहित्य रहा है, जो अब अनुपलब्ध है । प्रकट सिद्धनन्दी यह मूल संघ कनकोपल संभूत वृक्ष मूलगुणान्वय के विद्वान् थे। जैसा कि शिलालेख के निम्न पद्य से : कनकोपलसम्भूत वृक्षमूलगुणान्वये । भूतस्स समग्र राजान्सः सिद्धिनन्दि मुनीश्वरः ।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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