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________________ १२४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग-२ जय धवलाकार प्राचार्य यतिवृषभ के यचनों को राग-द्वेष-मोह का प्रभाव होने से प्रमाण मानते हैं। यति वषभ को वीतरागता और उनके वचनों क भगवान महावीर को दिव्यध्वनि के साथ एकरसता बतलाने से यह स्पष्ट है कि भाचार्य परम्परा में यतिवृषभ के व्यक्तित्व के प्रति कितना समादर और महान प्रतिष्ठा का बोध होता है। प्राचार्य यति वषभ विशेषावश्यक के कस जिनभागभिक्षभायम और पूज्यपाद से पूर्ववर्ती है। क्यों कि उन्होंने यतिवषभ के मादेसकसाय विषयक मत का उल्लेख किया है। चणि सुत्रकार ने लिखा है कि-'आदेस कसाएण जहा चित्त कम्मे लिहिदो कोहो रूसिदो तिवलिद णिडालो भिडि काऊण। यह कसाय पाहुड के पेज्जदोस विहत्ती नामक प्रथम अधिकार का ५६वां सूत्र है। इसमें बताया है कि क्रोध के कारण जिसकी भटि चढ़ी हुई है और ललाट पर तीन बली पड़ी हुई हैं, ऐसे क्रोधी मनुष्य का चित्र में लिखित आकार मादेशकषाय है। किन्तु विशेषावश्यक भाष्यकार कहते हैं कि अन्तरंग में कषाय का उदय न होने पर भी नाटक प्रादि में केवल अभिनय के लिये जो कृत्रिम क्रोष प्रकट करते हुए क्रोधी पुरुष का स्वांग धारण किया जाता है, वह प्रादेश कषाय है। इस तरह से प्रादेश कषाय का स्वरूप बतलाते हुए भाष्यकार कसाय पाहडणि में निर्दिष्ट स्वरूप का 'केई' शब्द द्वारा उल्लेख करते हैं: पाएसमो कसाम्रो कइयव कय भिडि भंगुराकारो। केई चिसा गहनो ठवणा णत्यंतरो सोऽयं ॥२६८१ इसमें बताया है कि-कितने ही प्राचार्य क्रोधी के चित्रादि गत आकार को प्रादेशकषाय कहते हैं, परन्तु यह स्थापना कषाय से भिन्न नहीं है, इसलिये नाटकादि नकली क्रोधी के स्वांग को ही मादेशकषाय मानना चाहिये। प्राचार्य यतिवृषभ का पूज्यपाव (देवनन्दी) से पूर्ववर्तित्व' होने का कारण यह है कि पुज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में एक मत विशेष का उल्लेख किया है :'अथवा एषां मते सासारन एकेन्द्रियेषु नोल्पद्यते तन्मतापेक्षया द्वावशभागा न दत्ता।' (सर्वा०सि० ११० ३७, पाव टिप्पण) जिन प्राचार्यों के मत से सासादन गुण स्थानवर्ती जीव एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होता है, उनके मत की अपेक्षा वारह वेद चौदह भाग स्पर्शन क्षेत्र नहीं कहा गया है। सासादन गुण स्थानवी जीव यदि मरण करता है तो वह एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होता, किन्तु नियम से देव होता है जैसा कि यतिवृषभ के निम्न णिसूत्र से स्पष्ट है: प्रासाणं पूण गवो जवि मरदि, ण सक्को जिरयगदि तिरिक्खगदि मणुसगदि वा गंव। णियमा देव गदि गच्छवि । (कसा० अधि०१४ सूत्र १४४ पृ० ७२७) प्राचार्य यतिवृषभ के इस मत का उल्लेख नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने अपने लब्धिसार-क्षपणासार की निम्न गाथा में किया है : जवि मरवि सासणो सो णिरय-तिरिक्ख णरं ण गच्छेदि । णियमा देवं • गच्छदि अइवसह मुणिदवयणं ।।। इस कथन से स्पष्ट है कि यतिवृषभ पूज्यपाद के पूर्ववर्ती हैं। पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दिने वि० सं० ५२६ में द्रविड संघ की स्थापना की थी। अतः यतिवृषभ का समय ५२६ से पूर्ववर्ती है। अर्थात् वे ५वीं शताब्दी के विद्वान है। १. एदम्हादो बिजलगिरिमस्थयस्थं बड्नमाणदिवापरादो विरिणामय गोदमलोहाजजम्बुमाभियानिआइरियपरंपराए यागंग गुणहराइरिय पाविय गाहासरूवेग परिणमिय अज्जम गामहत्थीहितो ज.वसह मुह निमिय चुणिमुत्ताबारेण परिणददिवाणिकिरणादो ब्वदे। --जय धव० भा० १ प्रस्ताzि० १०४६
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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