SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पांचवीं दाताब्दी से आठवी शताब्दी नक के आचार्य १२३ सं०३८० (वि० सं०५१५) में कांची नरेश सिंहवा के २२वं संवत्सर में, जब उत्तराषाढ़ नक्षत्र में शनैश्चर, दृषभ में बृहस्पति, और उत्तरा फाल्ग नि में चन्द्रमा अवस्थित था, तथा सवल पक्ष था। पाणराष्ट्र के पाटलिक ग्राम में पुराकाल में सत्रनन्दि ने लोषा विभाग की रचना की थी। सिंह बम पल्लव वंश के राजा थे। मोर काँची उनको राजधानी थी। संस्कृत लोक विभागको वे प्रशस्ति पछ इस प्रकार : वेबबे स्थिो भिसुते वयच जीथे। राजोत्तरेषु सितपाल गुपेत्य चन्द्र । ग्रामे च पाटलिक नामनि पाणराष्ट्र, शास्त्र' पुरालिसिसामूनि सर्वनन्दी। संघत्सरे तु द्वाविशे काञ्चीश-सिह वर्मणः अशोत्यग्रेशकाब्दानां सिद्धमेतच्छत त्रये ॥४॥ तिलोयपणती में 'लोक विभागाइरिया' वाजप के साथ सर्वनन्दी के अभिमत का उल्लेख किया गया है। आचार्य यतिवृषभ यह पायं मक्ष के शिय्य योर नागहस्तक्षमायना के सन्तबासी से । उक्त दोनों पात्रायों को कसाय पाहड की गाथा आचार्य परम्परा मे ग्राती प्राप्त ईशी सोर जिनका उन्ह अच्छा परिज्ञान था। यन्निवपम ने उक्त दोनों गुरुयों के समीप गुणधराचार्य के कसाय पाहडसन को उन गाथानों का अध्ययन किया, और वह उनके रहस्य से परिचित हो गया था। अतएब उसने उन मुत्र गाथाओं का सम्यक् अर्थ अवधारण करके उन पर सर्वप्रथम छह हजार चूर्णि-सूत्रों की रचना की। प्राचार्य वी रमन ने उन्हें 'वृत्ति सुत्र' का कता बतलाया है।' और उन से वर भी चाहा है। जिनको रचना संक्षिप्त हो और जिनमें सूत्र के समस्त प्रों का संग्रह किया गया हो, सूत्रों के ऐसे विवरण को वृत्ति सूत्र कहते हैं । चूणि-सूत्रों के अध्ययन करने से जहां आचार्य यति बुपम के अगाध पाण्डित्य और विशाल प्रागम ज्ञान का का पता चलता है। वहां उनकी स्पष्टवादिता का भी बोध होता है। चारित्र मोह क्षपणा अधिकार में क्षपक की प्ररूपणा करते हुए यव मध्य की प्ररूपणा करना आवश्यक था। पर वह यव मध्य प्ररूपणा करने का उन्हें ध्यान नहीं रहा, किन्तु प्रकरण की समाप्ति पर चणिकार लिखते हैं-"जब मम्झ कायव्वं, विस्तरिद लिहिदु' (.६७६, पृ. ६४०)। यहां पर यव मध्य की प्ररूपणा करना चाहिए थी। किन्तु पहले क्षपण-प्रायोग्य प्ररूपणा के अवसर में हम लिखना भूल गए । यह प्राचार्य यति बषभ की स्पष्टवादिता और वीतराग वृत्ति का निर्देशन है। १. जो अज्ज मंडू सीगो अनेवापी विरणागहत्यिस्स | जय ध० ० १ २ ४ २. पुगो ताम्रो चेव मुत्त गाहाओ आइरिय परंपराए पागच्छमाणीओ अज्जमखू णामहत्वीणं पत्ताओ। पुणो तेसि दोह पि पाद भूने असीदिलद गाहागं गुणहरमुक मलविरिणग्गयाणमत्थं सम्म मोऊण जयिवसहभडारएस पवपरगवच्छलेण चुणि सुत कयं ।'-(जय० पू०१ १०५८) ३. पावं तयोमोगप्यधीस्वसूत्रापि तानि यतिवृषभः । यतिवृषभनामधेयो बभूवशास्त्रार्थनिपुणमतिः ।। तेन ततो मतिपतिता तद गाथा वृत्ति सूत्ररूपेण । रचितानि षट् सहमग्रन्थान्ययचूणिसूत्रारिण।" –इन्द्रनन्दि श्रुतावतार–१५५, १५६ ४. 'सो विसि सुत्त कत्ता जइवसहो मे वर देऊ ।' -(जय० प० पु० १९०४) ५. सुत्त पेव विवरण सखित्त सद्दरपणाए संगहिर सुत्तासे सत्याए वित्ति सुत्तवयएमादो।। जयपवला अ० ५० ५२
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy