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________________ १२२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग --२ बउ बायगवंसो जस वंसो प्रमाणागहत्थीणं । सागरण करण भंगिय कम्म पयडी पहाणाणं ॥३० इसमें बताया है कि व्याकरण, करण चतुर्भगी मादि के निरूपक शास्त्र तथा कर्म प्रकृति में प्रधान प्रार्य नागहस्ती का यशस्वी वाचक वंश वृद्धि को प्राप्त हो । नन्दि सूत्र में आर्य मंग के पश्चात् आर्य नन्दिल का स्मरण किया है और उसके पश्चात् नागहस्ति का। नन्दिसूत्र चूर्णी और हारिभद्रीय वृत्ति में भी यही क्रम पाया जाता है। दोनों में आर्य मंगु का शिष्य आर्य नन्दिल और आर्य नन्दिल का शिष्य नागहस्ती बतलाया है। "मार्य मंगु शिष्य प्रार्य नन्दिल क्षपणं शिरसा वंदे । -.-.""प्रार्य नन्दिल क्षपण शिष्याणां प्रार्य'नागहस्तिीण। इससे पार्य मंगु के प्रशिष्य पार्य नागहस्ति थे, ऐसा प्रमाणित होता है। नागहस्ति को कर्म प्रकृति में प्रधान बताया है और बाचकवंश की वृद्धि की कामना की गई है। श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में प्रार्य मंगु की एक कथा मिलती है। उस में लिखा है कि ये मथुरा में जाकर भ्रष्ट हो गये थे। नागहस्तिी को बाचक वंश का प्रस्थापक भी बतलाया है। इससे स्पष्ट है कि वे वाचक थे, इस कारण उनके शिष्य वाचक कहलाये। इन सब बातों पर विचार करने से यह संभाव्य लगता है कि श्वेताम्बर परम्परा के आर्य मंगु और महाबाचक नागहस्ती और धवला जय धवला के महावाचक आर्य मंक्षु और महावाचक नागहस्ति एक हों। पार्य मंगु का समय तपागच्छपट्टावली पृ० ४७ में वीरनिर्वाण से ४६७ वर्ष मौर सिरि दुसमाकलसमणसंघययं की प्रवचरि १०.१६ में वीर नि० ६२०-६८९ बतलाया है। किन्तु दोनों का एक समय किसी भी श्वेताम्बर पद्रावली में उपलब्ध नहीं होता। किन्तु दिगम्बर परम्परा में दोनों को यतिवृषभ का गुरु बतलाया है। मथुरा के लेख नं० ५४ प्रौर ५५ के प्रार्य घस्तु हस्त तथा हस्ति हस्ति तो काल को दृष्टि से पट्टावली के १६ वें पद्रधर नागहस्ती जान पड़ते हैं । लेखों के ज्ञात समय से पट्टावली में दिये गये समय के साथ कोई विरोध नहीं पाता। लेखों के कुषाण संवत् ५४ और ५५ (वीर नि० सं० ६५७ और ६५६) पट्टावली में दिये गए नागहस्ती के समय वीर नि० सं० ६२०-६० के अन्तर्गत पा जाते हैं। अर्थात् नाग हस्ती ६५६, ४७०=१८९ वि०सं० में विद्यमान थे। उसी समय के लगभग षट्खण्डागम की रचना हुई है । उस समय कर्म प्रकृति प्राभूत मौजूद था। उसी के लोप के भय से धरसेनाचार्य ने पुष्पदन्त भूतबलि को पढ़ाया था। प्रतः लेखगत यह समकालीनता आश्चर्यजनक है। यह बात खास तौर से उल्लेखनीय है कि लेख नं. ५४ में आर्य नागहस्ति वस्तु हस्ति और मंगुहस्ति का तथा लेख नं० ५५ में नागहस्ति (हस्त हस्ति) और माघ हस्ति का एक साथ उल्लेख है। माघहस्ति संभवत: मंगु मंख या मक्ष का नामान्तर हो, और शिल्पी की असावधानी से ऐसा उत्कीर्ण हो गया हो। दोनों लेखों में दोनों का एक साथ उल्लेख होना अपना खास महत्व रखता है। पर इससे यतिवृषभ को और पहले का विद्वान मानना होगा। तब इस समय के साथ उनकी संगति ठीक बैठ सकेगी। यतिवृषभ का वर्तमान समय ५वीं शताब्दी तो तिलोयपण्णत्ती के कारण है। प्राचीन तिलोयपण्णत्ती के मिल जाने पर उस पर विचार किया जा सकता है। मुनि सर्वनन्दी (प्राकृतलोक विभाग के कर्ता) मुनि सर्वनन्दी विक्रम की छठवीं शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान् थे । और प्राकृत भाषा के अच्छे विद्वान थे। उनकी एक मात्र कृति 'लोकविभाग का उल्लेख तिलोयपण्णत्ती में पाया जाता है। परन्तु निश्चय पूर्वक यह कहना कठिन है कि जिस लोक विभाग का उल्लेख तिलोयपण्णत्ती कार' ने किया है. वह इन्हीं सवनन्दी की रचना है। सिहसरि ने इसका संस्कृत में अनुवाद किया है। उसकी प्रशस्ति के निम्न पद्य से ज्ञात होता है कि सर्वनन्दी ने उसे शक
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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