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पांचवीं शताब्दी से आठवी शताब्दी के आचार्य
सिक्कों पर महेन्द्र, महेन्द्रसिंह, महेन्द्र वर्मा, महेन्द्र कुमार आदि नाम उपलब्ध होते हैं।"
तिब्वतीय ग्रन्थ चन्द्र गर्भ सूत्र में लिखा है- "भवन पत्हिकों शकुनों (कुशनों) ने मिलकर तीन लाख सेना से महेन्द्र के राज्य पर आक्रमण किया। गंगा के उत्तर के प्रदेश जीत लिये। महेन्द्रसेन के युवा कुमार ने दो लाख सेना लेकर उस पर आक्रमण किया और विजय प्राप्त की। लोटने पर पिता ने उसका अभिषेक कर दिया। इससे मालूम होता है कि पूज्यपाद ने इसी घटना का उल्लेख किया है। उसने गया के आस-पास का प्रदेश जीतकर मथुरा को अपना केन्द्र बनाया था। कुमार गुप्त का राज्य काल वि० स० ४७० से ५१२ ( सन् ४१३ से ४४५ ई० है। ग्रतः यही समय पूज्यपाद का होना चाहिए ।
पं० युधिष्ठिर जी का यह मत ठोक नहीं है, क्योंकि 'अरुणत् महेन्द्रो मथुराम्' यह वाक्य पूज्यपाद का नहीं है किन्तु महावृत्तिकार भयनन्दि का है। इसलिये यह तर्क प्रमाणित नहीं हो सकता ।
आर्यमंक्षु और नागहस्ति
और नागस्ति- इन दोनों प्राचार्यों की गुरु परम्परा और गण- गच्छादि का कोई उल्लेख नहीं मिलता । ये दोनों प्राचार्य यति वृषभ के गुरु थे । आचार्य वीरसेन जिनसेन ने घवला जयधत्रला टीका में दोनों गुरुओं का एक साथ उल्लेख किया है। इस कारण दोनों का अस्तित्व काल एक समय होना चाहिये, भले ही उनमें ज्येष्ठत्व कनिष्ठत्व हो । इन दोनों आचार्यों के सिद्धान्त विषयक उपदेशों में कुछ सूक्ष्म मत भेद भी रहा है। जो वीरसेनाचार्य को उनके ग्रंथों अथवा गुरु परम्परा से ज्ञात था जिनका उल्लेख धवला - जयधवला टीका में पाया जाता है और जिसे पवाइज्जमाण ग्रपवाइज्जमाण या दक्षिण प्रतिपत्ति और उत्तर प्रतिपत्ति के नाम से उल्लेखित किया है। " जयघवला में उन्हें 'क्षमाश्रमण' और 'महावाचक' भी लिखा है, जो उनकी महत्ता के द्योतक हैं । श्वेताम्बरीय पट्टावलियों में ग्रज्जमंगु और अज्ज नाग हत्थी का उल्लेख मिलता है । नन्दि वली में अज्जमंग को नमस्कार करते हुए लिखा है
घवला
सूत्र की 'पट्टा
भगं करगं झरगं पभावगं णाणदंसणगुणाणं । बंदामि श्रज्जमं सुयसायरपारगं धीरं ॥ २८
सूत्रों का कथन करने वाले, उनमें कहे गए बाचार के संपालक, ज्ञान चोर दर्शन गुणों के प्रभावक, तथाश्रुतसमुद्र के पारगामी वीर ग्राचार्य मंगु को नमस्कार करता हूँ ।
इसी प्रकार नागहस्ति का स्मरण करते हुए लिखा है
१. भूमिका जैनेन्द्र महावृत्ति पृ० ८
२. पं० भगवत का भारतवर्ष का इतिहास सं० २००३ पृ० ३५४ ३, जो अज्जम सीतो अवेदासी वि लागहत्यिस्स ।
- जयघवला भा० १०४
४: सव्वाइरिय सम्म दो चिरकालभवोच्चिसंपदायकमेणागच्यमाणो जो शिष्यपरम्परा वाज्जदेसो पाहणंतो एसोति भण्गदे । अथवा अज्जमखु भवतामुसो एत्थापवाइज्यमाणो साथ | arastथ खरगाणमुवएसो पवाइज्यंतबोलि - ( जयधवला प्रस्तावना टि० पृ० ४३ घेतव्यो ।
५. "कम्मत अणियोगद्वारेहि भग्नमाणे वे उबएमा होंति जहग्गामुक्कस्रा दिउदीरणं पमाण पणा कम्मदिदि परूदवृत्ति गुगह देव मागवणा भाति । अज मंखु समासमणा पुरण कम्मर्याद पन्ति भरति । एवं दोहि उबरसे हि कम्म 'महावाचयाशुमज्जमखु वराणामुवासेण लोगरिदे आउ सगाणं गामा गोदपरूपणा काव्या । एत्थ दुवे उबरसा वेदणीराणं दिवदि संतकम्म ठवेदि । महावाचयाणं गागहत्थि सवगाण मुबएसंग लांगे पूरिंदे नामा-गोद वेदीया दिउदिगंत कम्म तो मुद्दतमा होदि ।
-धवला टीका