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________________ १२. जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ पूज्यपाद के ग्रन्थों पर समन्तभद्र का प्रभाव स्पष्ट है। और जनेन्द्र व्याकरण में पूज्यवाद ने 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य' सूत्र द्वारा उनका उल्लेख भी किया है। पूज्यपाद ने तत्त्वार्थवृत्ति में सिद्धसेन की द्वात्रिंशिका के निम्न पद्यांश को उद्धत किया है-"वियोजयति चासुभिनं च वधेन संयुज्यते" सन्मति में सुत्र और कुछ द्वात्रिंशतिकामों के कर्ता सिद्धसेन का समय चौथी-पांचवीं शताब्दी है अतएव पूज्यपाद भी इसी समय के विद्वान हैं। पूज्यपाद गंगवंशीय राजा अविनीति (वि० सं० ५२३) के पुत्र विनीति (वि० सं०५३८) के शिक्षा गुरु थे। अवनीत के पुत्र दुविनीत ने शब्दाशार गायक यश की जन प्रेमीजी ने लिखा है-शिमोगा जिले की नगर तहसील के शिलालेख में देवनन्दी को पाणिनीय व्याकरण पर शब्दावतार न्यास का कर्ता लिखा है। इससे अनुमान होता है कि दुविनीत के गुरु पूज्यपाद ने वह ग्रंथ रचकर अपने शिष्य के नाम से प्रचारित किया था।' विनीत का राज्य काल सन् ४८० ई० से ५२० ई. के मध्य का माना जाता है। इससे पूज्यपाद ५वों के उत्तरार्द्ध और छठी के पूर्वार्द्ध के विद्वान् ठहरते हैं। पूज्यपाद के एक विद्वान् शिष्य वचनन्दि ने वि० सं० ५२६ (४६६ ई०) में द्रविड़ संघ की स्थापना की थी। इससे भी पूज्यपाद का उक्त समय निश्चित होता है। व्याकरण में ग्रन्थकार प्राचीन उदाहरणों के साथ स्व-समयकालिक घटनायों का भी निर्देश करते हैं। जैसे 'प्रदहदमोघवर्षोऽरातीन् शाकटायन (४/३/२०८) 'अरुणत् सिद्धराजोऽवन्तीम् हैम (५/२/८) इसी तरह जैनेन्द्र व्याकरण का 'अरुणन्मेहेन्द्रो मथुराम्' (२/२/१२) इसका अर्थ है महेन्द्र द्वारा मथुरा का विजय। यह महेन्द्र गुप्तवंशी कुमार गुप्त है। इनका पूरा नाम महेन्द्र कुमार है। जैनेन्द्र के 'विनापि निमित्तं पूर्वोत्तर पदयो वा त्वं वक्त व्यम्' (४/१/१३६) अथवा पदेषु पदक देशान' नियम के अनुसार उसी को महेन्द्र अथवा कुमार कहते हैं। उसके 'अवेस्तस्य कालान्तरेऽविस्मरणकारणम् ।' विशेषावश्यक भाष्य में इन्हीं शब्दों को दुहराते हुए कहा हैकालंतरं च जं पुणरणुसरणं धारणासाउ || गा० २६१ चाक्षु इन्द्रिय को अप्राप्यकारी बतलाते हुए सर्वार्थ सिद्धि अ० १ सूत्र १९ में कहा है-'मनोवद् प्राप्यकारीति' विशेषावश्यक भाष्य में उसे निम्न शब्दों में व्यक्त किया है । 'लोयणमपत्तविषयं मणोच ॥" गाथा २०६ सर्वार्थ सिद्धि अ०१ सूत्र २० में यह शंका की गई है कि प्रथम सभ्यकत्व की उत्पत्ति के समय दोनों शानों की उत्पत्ति एक साथ होती है अतएव धुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है । यह नहीं कहा जा सकता। आह-प्रथम सम्यक्त्वोत्पती युगपज्ज्ञान परिणामान्मति पूर्वकत्वं श्रुतस्यनोलायत इति ।' इसके प्रकाश में विशेषावश्यक की निम्न गाथा को देखियेगाणाणाणिय सम कालाई जो मइसुआई। तो न सुयं मइ पुवं महणाणे वा सुयन्नारगं ॥ गा० १०७ १. देखो, सर्वार्थ सिद्धि समन्तभद्र पर प्रभाव शीर्षक लेख अनेकान्त वर्ष-५ पृ० ३४५ २. श्रीमरकों करणं महाराजाधिराजस्याविनीत नाम्नः पुत्रेण शब्दावतारकारेण देवभारती निबद्ध बहत्कथेन किरातार्जुनीय पंचदश मर्ग टीकाकारेण दुर्थिनीतिनामधेयेन३. सिरि पूज्यपाद सीसो दाविड संघस्स कारगो दुट्ठो । रामेण वज्जरमंदी पाहुइवेदी महासत्तो ।।। पंचसये छम्चीसे विक्कम रायस्स मरणपत्तस्स । दक्खिरण महुराजादो दाविउसंघा महामोहो ।। -दर्शनमार
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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