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________________ (16 नगर तहसील के ४६ में शिलालेख में इस बात का 'जैनेन्द्र' नामक न्यास लिखा था और दूसरा पाणिनि पांचवी शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य जैनेन्द्र और शब्दावतार व्यास- शिमोगा जिले के उल्लेख है कि श्राचार्य पूज्यपाद ने अपने उक्त व्याकरण पर व्याकरण पर 'शब्दावतार' नाम का न्यास लिखा था । यथान्यासं जनेन्द्र संजं सकल बुधनुतं पाणिनीयस्य भूयो । न्यासं शब्दावतारं मनुजतिहितं वैद्यशास्त्रं च कृत्वा ॥ यस्तस्वार्थस्य टीकां व्यरचदिहतां भात्यसौ पूज्यपादस्वामी भूपाल वन्द्यः स्वपरहितवचः पूर्णदृग्बोध वृत्तः ॥ ये दोनों ग्रंथ श्रभी उपलब्ध नहीं हुए हैं । ग्रन्थ भंडारों में इनके अन्वेषण करने की जरूरत है । शान्त्यष्टक - क्रिया कलाप ग्रन्थ में संग्रहीत है। इस पर पं० प्रभाचन्द्र की संस्कृत टीका भी है। कहा जाता है कि पूज्यपाद की दृष्टि तिमिराच्छन्न हो गई थी, उसे दूर करने के लिये उन्होंने 'शान्त्यष्टक' की रचना की हो। क्योंकि उसके एक पद्य में दृष्टि प्रसन्नां कुरु वाक्य माता है । सार संग्रह - प्राचार्य पूज्यपाद ने 'सार संग्रह' नाम के ग्रन्थ की रचना की है। जैसा कि घवला टीका के निम्न वाक्य से स्पष्ट है "सार संग्रहेऽप्युक्त पूज्यपाद: अनन्त पर्यात्मकस्य वस्तुनोऽन्यतम पर्यायाधिगमे कर्तव्ये जात्यहेत्वपेक्षो निरवद्य प्रयोगो नय इति ।" सर्वार्थ सिद्धि में पूज्यवाद ने जो नय का लक्षण दिया है उससे इसमें बहुत कुछ समानता है । चिकित्सा शास्त्र — की रचना पूज्यपाद ने की हां, इसके उल्लेख तो मिलते है पर वह अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ । उग्रदित्याचार्य ने अपने कल्याण कारक वैद्यक ग्रन्थ में उसका उल्लेख निम्न शब्दों में किया है 'पूज्यपादेन भाषितः, शालाक्यं पूज्यपाद प्रकटितमधिकम् ।' प्राचार्य शुभचन्द्र ने अपने 'ज्ञानार्णव' में उसका उल्लेख किया है और बतलाया है कि जिनके वचन प्राणियों के काय, वाक्य और मन सम्बन्धी दोषों को दूर कर देते हैं उन देवनन्दी को नमस्कार है। इसमें पूज्यपाद के दूर करने तीन ग्रन्थों का उल्लेख संनिहित है :- वाग्दोषों को दूर करने वाला जैनेन्द्र व्याकरण, प्रोर चित्त दोषों को वाला ग्रापका मुख्य ग्रन्थ 'समाधितंत्र' है। तथा काय दोषों को दूर करने वाला किसी वैद्यक ग्रन्थ का उल्लेख किया है, जो इस समय अनुपलब्ध है । 'अपाकुर्वन्ति यद्वाच: कार्यवाक् चित्त संभवम् । कलंक मंगिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ।।' यह वैद्यक ग्रन्थ अभी अनुपलब्ध है । शिमोगा नगर ताल्लुका के ४६ वें शिलालेख में भी उन्हें मनुष्य समाज का हितैषी और वैद्यक शास्त्र का रचयिता बतलाया है । जनाभिषेक- श्रवण वेलगोल के शक सं० २०८५ के ४० नवम्बर के एक पद्य में अन्य ग्रन्थों के उल्लेख के साथ अभिषेक पाठ का उल्लेख किया है। छन्द ग्रंथ - प्राचार्यं पूज्यपाद ने छन्द ग्रन्थ की रचना भी की थी। छन्दोऽनुशासन के कर्ता जयकीति ने के 'छन्द ग्रन्थ का उल्लेख किया ।" पूज्यपाद समय श्राचार्य पूज्यपाद के समय के सम्बन्ध में कोई विवाद नहीं है; क्योंकि पूज्यपाद के उत्तरवर्ती प्राचार्य जिन मद्रगणि क्षमाश्रमण (वि० सं० ६६६) ने विशेषावश्यक में सर्वार्थसिद्धि के वाक्यों को अपनाया है, जैसा कि उसकी तुलना पर से स्पष्ट है। इससे स्पष्ट है कि पूज्यपाद सं० ६६६ से पूर्व हैं। प्रकलंकदेव ने भी सर्वार्थसिद्धि को वार्तिकादि के रूप में तस्वार्थ वार्तिक' में अपनाया है । तुलना १. देखो वन्दोनुशासन, जयकीर्ति २. सर्वार्थ सिद्धि अ० १ पृ० १५ में धारणा यति ज्ञान का लक्षण निम्न रूप में दिया है :
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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