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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास--भाग २
अतेन लिन पक्षात्मशाषित समादितान्त करणेन सम्यक् ।
समीक्ष्य कैवल्य सुखस्य हाणां विविक्तमारमानमथाभिधास्ये ।। ग्रन्थ का तुलनात्मक अध्ययन करने से स्पष्ट जान पड़ता है कि कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों को आत्मसात् करके इसकी रचना की है। यहां नमूने के तौर पर दो पद्यों की तुलना नीचे दी जा रही है : -
तिपयारो सो अप्पा परमंतर बाहिरो हु वेहोणं । तत्थ परो भाइज्जइ घेतोबाएण चयदि बहिरप्पा ।। मोक्ष प्रा० बहिरन्तः परश्चेति विधात्मा सर्वदेहिषु । उपेयात्तत्र परमं मध्योपायाद बहिस्स्यजेत ।। समाधितंत्र णियभावं ण यि मंचइ परभावं व गिरोहये केई । जाणदि पस्सवि सव्वं सोहं इदि चितएणाणी ।।७ नियमसार यवग्राह्य न गृह्णाति गृहीतं नापि मुञ्चति ।
जानाति सर्वथा सर्व तत्स्व संवेद्यमसम्यहम् ।। १३० समाधितंत्र ग्रन्थ के पढ़ने से ऐसा लगता है कि उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना उस समय की, जब उनको दृष्टि बाह्म से हटकर अन्तर्मुखी हो गई थी।
तीसरी रचना इष्टोपदेश है । यह ५१ पद्यों का छोटा सा लघकाय ग्रन्थ है, जो माध्यात्मिक रस से सरावोर है। इस ग्रन्थ पर पं० प्रवर आशाघर जी की एक संस्कृत टीका है, जो प्रकाशित हो चुकी है। यह भी अध्यात्म की अनुपम कृति है, और कंठ करने के योग्य है। इन ग्रन्थों के निर्माण करते समय ग्रन्थकर्ता को एक मात्र यही दृष्टि रही है कि संसारी प्रात्मा अपने स्वरूप को कैसे पहचाने, तया देहादि पर पदार्थो से अपनत्व का परित्याग कर प्रात्म-कार्यों में सावधान रहे।
वशभक्ति-प्रभाचन्द्र ने क्रियाकलाप की टीका में –'संस्कृताः सर्वाभक्तयः पूज्यपाद स्वामी कृताः प्राकृतास्त कन्दकन्दाचार्य कृत्ताः' संस्कृत की सभी भक्तियों को पूज्यपाद की बतलाया है। इनमें सिद्ध भक्तिह पद्यों की बड़ी ही महत्त्वपूर्ण कृति है। उसमें सिद्धि, सिद्धि का मार्ग और सिद्धि को प्राप्त होने वाले यात्मा का रोचक कथन दिया हुआ है। इसी तरह श्रुत भक्ति, चारित्र भक्ति, योगि भक्ति, प्राचार्य भक्ति और निर्वाण भक्ति तथा नन्दीश्वर भक्ति का संस्कृत पद्यों में स्वरूप दिया हुमा है। इन सभी भक्तियों की रचना प्रौढ़ है।
जनेन्द्र व्याकरण-आचार्य पूज्यपाद की यह मौलिक कृति है। यह पांच अध्यायों में विभक्त है। इसकी सूत्र संख्या तीन हजार के लगभग है। इसका सबसे पहला सूत्र सिद्धिरने कान्तात् है। इस में बतलाया है कि शब्दों की सिद्धि और शप्ति अनेकान्त के आश्रय से होती है। क्योंकि शब्द अस्तित्व-नास्तित्व, नित्यत्व-अनित्यत्व, और विशेषण-विशेष धर्म को लिये हुए होते हैं।
इसमें भूतबलि श्रीदत्त, यशोभद्र, प्रभाचन्द्र, समन्तभद्र और सिद्धसेन नाम के छह आचार्यों के मतों का उल्लेख किया गया है।
"रादभूतबले: ३, ४, ८३ । आचार्य श्रीदत्त मत का प्रतिपादन करने वाला सूत्र-"गुणे श्रीदत्तस्यास्त्रियाम्, १, ४, ३४। प्राचार्य यशोभद्र के प्रतिपादक सूत्र है-'कृषिम् । यशोभद्रस्य । है, २,१, १२ 1 और प्रभाचन्द्र के प्रतिपादक सूत्र है-'रात्रः कृति प्रभाचन्द्रस्य, ४,३,१८० । प्राचार्य समन्तभद्र के मत को अभिव्यक्ति करने वाला सुत्र-'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य, ५, ४, १४० । सिद्धसेन के मत का प्रतिपादक सूत्र-'वेत्र: सिद्धसेनस्य । ५.२.७ इन अल्लेखों से स्पष्ट हैं कि ये सब ग्रन्थ और ग्रन्थकार प्राचार्य पूज्यपाद से पूर्ववर्ती हैं।' जैनेन्द्र व्याकरण की अपनी कुछ विशेषताएँ हैं जिनके कारण उसका स्वतन्त्र स्थान है। जैनेन्द्र व्याकरण का असली सत्र पाठ प्राचार्य प्रभयनन्दि कृत महावृत्ति में उपलब्ध होता है। जैन साहित्य और इतिहास में इसकी विशेषतापों का उल्लेख किया गया है।