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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ इनके प्रथम शिष्य का नाम चिकार्य था। जिनके नागदेव' और जिननन्दि प्रादि पांच सौ ५०० शिष्य थे। प्लकेशी (प्रथम) चालुक्य के सामन्त सामियार थे, जो कुहाडी जिले का शामकथा, उसने अलक्तक नगर में, जो उस जिले के ७०० सात सौ गांवों के समूहों में एक प्रधान नगर था, एक जिन मन्दिर बनवाया, और राजा को आज्ञा लेकर विभव संवत्सर में जवकि शक वर्ष ४११ (वि० सं० ५४६) व्यतीत हो चुका था वैशाख महीने की पूर्णिमा के दिन चन्द्र ग्रहण के अवसर पर कुछ जमीन और गांव प्रदान किये। सिद्धिनन्दि का उल्लेख शाकटायन व्याकरण के सूत्र पाठ में मिलता है। इससे यह यापनीय सम्प्रदाय के विद्वान जान पड़ते हैं। पुलकेशा प्रथम के शक सं०४११ के दानपान में सिद्धिनन्दि का उमेस है।' अतएव इनका समय शक सं० ४११ सन् ४.८ तथा विक्रम सं० ५४६ हैं। चितकाचार्य यह मूल संध कनकोपलाम्नाय के विद्वान भाचार्य सिद्धनन्दि मुनीश्वर के प्रथम शिष्य थे। यह उक्त आम्नाय में बहत प्रसिद्ध थे। और नागदेव' चितकाचार्य द्वारा दीक्षित थे । अर्थात् चितकाचार्य उनके दीक्षा गुरु थे। नागदेव के गुरु जिननन्दि थे। जैसा कि अल्तम शिलालेख के निम्न पद्यों से जाना जाता है : तस्यासीत् प्रथम शिष्यो वेवताविनुतक्रमः । शिष्यः पञ्चशत युक्तश्चितकाचार्यदीक्षितः ॥ नागदेव गुरोशिष्यः प्रभूतगुणयारिधिः। समस्तशास्त्र सम्बोधी जिननन्दि प्रकोतितः॥ (जैन लेख सं०भा०२१०७७) सिद्धिनन्दि मुनिराज का समय ईसा की ५वीं सदी ४८ ई० है। अतः चितकाचार्य का समय भी ईसा की पांचवीं पीर विक्रम को छठी शताब्दी का पूर्वार्ध होना चाहिए। वजनन्दि बच्चनधि देवनन्दि (पूज्यपाद) के शिष्य थे। बड़े विद्वान थे। इन्होंने दर्शनसार के अनुसार सं० १२४में द्रविड संघ की स्थापना की थी। देवसेन ने दर्शनसार में उन्हें नामास बतलाया है और लिखा है कि-"उसने कछार, खेत, वसति (जैन मन्दिर) पौर वाणिज्य से जीविका निर्वाह करते हुए और शीतल जल से स्नान करते हए प्रचुर पाप का संग्रह किया।"२ । मल्लिाषेण प्रशस्सि में वचनन्दि के 'नवस्तोत्र' नामक ग्रन्थ का उल्लेख किया गया है, जिसमें सारे प्रवचन को अन्तर्भुक्त किया गया है और जिसकी रचना शंली बहुत सुन्दर है : ------- १.देखो, इं० १० जि०७ पृष्ठ० २०५-१७ तथा जैन लेख संग्रह भाग २ अल्तेम का लखनं०१०६ पृ०६५ २. सिरिपुजपाद सीसो दाविडसंघस्स फारगो वुहो। णामेण बज्जणदी पाहुवेदी महासत्तो।। पंचसये हुव्वीस शिकामराय स्म मरण पत्तस्स । दक्षिण महरा-जादो दाविद संघो महामोहो ॥ शनसार अर्थात् विक्रम राजा के ५२६ वर्ष बीतने पर द्राविध संघभी स्थापना की।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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