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________________ पांचवीं शतावरी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य नवस्तोत्रं तत्र प्रसरति कवीन्द्राः कथपि प्रमाणं वज्रादो रचयत परन्निदिनि मुनी aarata पेन व्यरचि सकलहंसप्रवचन प्रपंचान्तर्भाव प्रचणदर सन्दर्भ सुभगम् ॥११॥ पुन्नाट संधी जिनगेन ने हरिवंश पुराण में वज्रसूरि की स्तुति करते हुए लिखा है-वज्रसूरे विचारण्यः सहेत्यानंन्धमोक्षयोः । प्रमाणं धर्मशास्त्राणं प्रवक्तृणामिवोक्तयः ॥ ३६॥ १२७ अर्थात् वज्रसूरि को सहेतुक बन्ध-मोक्ष की विचारणा में धर्मशास्त्रों के प्रवक्ताओंों की - गणधरदेवों की उक्तियों के समान प्रमाणभूत है। इससे स्पष्ट है कि उनके किसी ऐसे अन्य की ओर संकेत है जिसने दत्व, मोक्ष, उनके कारण राग-द्वेष तथा सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रादि की चर्चा है। महाकवि धवल ने भी अपने हरिवंश पुराण में लिखा है कि वज्जसूरि सुपसिद्ध मुणिवस, जेण पमाणगंथ कि चंन । वज्रसूरि नाम के सुप्रसिद्ध मुनिवर हुए जिन्होंने सुन्दर प्रमाण ग्रन्थ बनाया । दोनों विद्वान यदि एक हैं तो नवस्तोत्र के अतिरिक्त उनका कोई प्रमाण ग्रन्थ भी होगा। धर देवों के समान प्रामाणिक मानते हैं। और देवसेन ने उन्हें जैनाभास बतलाया है ।" नन्दी और वरि जिनसेन तो उन्हें गण नागसेन गुरु नरगसेन गुरु- ऋषभसेन के शिष्य थे। जिन्होंने सन्यास विधि से श्रवणबेलगोल के चन्द्रगिरि पर्वत पर देह त्याग किया था। जिसका श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० २४ (३४) में उल्लेख है। और उसमें महत्व के सात विशेषणों के साथ उनकी स्तुति को लिये हुए निम्न श्लोक दिया हुआ है : मागसेनमनधं गुणाधिकं नाग नामक जितारि मंडलं । राज्यपूज्यममल श्रियास्पदं कामदं हतमदं नमयाम्यहं । इस शिलालेख का समय शक सं० ६२२ (वि० सं० ७५७) सन् ७०० के लगभग अनुमान किया गया है, परन्तु उसका कोई आधार नहीं दिया । स्वामी कुमार स्वामी कुमार ने अपना कोई परिचय प्रस्तुत नहीं किया । किन्तु कार्तिकेयानुप्रेक्षा की मन्तिम ४८९ नं० की गाथा में वसुपूज्यसुत-वासुपूज्य, मल्लि और अन्त के तीन नेमि, पार्श्व और वर्द्धमान ऐसे पांच कुमार श्रमण तीर्थंकरों की वन्दना की गई है। जिन्होंने कुमारावस्था में ही जिन दीक्षा लेकर तपश्चरण किया है और जो तीन लोक के प्रधान स्वामी हैं। इससे यह बात निश्चित होती है कि प्रस्तुत ग्रन्थाकार कुमार श्रमण थे, बाल ब्रह्मचारी थे। और उन्होंने बाल्यावस्था में ही जिन दीक्षा लेकर तपश्चरण किया है। इसी से उन्होंने अपने को विशेष रूप में इष्ट पांच कुमार तीर्थंकरों की स्तुति की है । स्वामि-शब्द का व्यवहार दक्षिण देश में अविक प्रचलित है और वह व्यक्ति विशेषों के साथ उनकी प्रतिष्ठा का द्योतक होता है। कुमारसेन कुमार नन्दी श्रौर कुमार स्वामी जैसे नामधारी प्राचार्य दक्षिण देश में 'हुए १. देवी दर्शनसार गाया २७
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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