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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
जदं चरे जवं चिट्ठे जवमासे जब सये ।
जब भुजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण बभई || ( मूला० १०- १२१ )
मुनियों को कैसे चलना चाहिए, कैसे खड़े होना और बैठना चाहिए। कते सोना चाहिए, कंने भोजन करना चाहिए, और कैसे बात-चीत करना चाहिये और कैसे पाप बन्ध नहीं होता है ? इस तरह गणधर के प्रश्नों के अनुसार साधु को यत्न से चलना चाहिये, यत्न पूर्वक खड़े रहना चाहिए, यत्न से बैठना चाहिये, यत्न पूर्वक शयन करना चाहिए, यत्नपूर्वक भोजन करना चाहिए और यत्न से सम्भाषण करना चाहिये। इस तरह यत्न पूर्वक श्राचरण करने से पाप कर्म का बन्ध नहीं होता है। इस अंग में पांच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, और पंच आचारों यादि का वर्णन किया गया है ।
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सूत्रकृतांग छत्तीस हजार पदों के द्वारा ज्ञान विनय, प्रज्ञापना, कल्प, ग्रकल्प, छेदोपस्थापना आदि व्यव हार धर्म की क्रियाओं का वर्णन करता है। साथ ही स्वसिद्धान्त और पर सिद्धान्त का भी कथन करता है ।
स्थानांग – बयालीस हजार पदों द्वारा एक से लेकर उत्तरोतर एक एक अधिक स्थानों का निरूपण करता है । उसका उदाहरण - यह जीव द्रव्य अपने चैतन्य धर्म को अपेक्षा एक है। ज्ञान और दर्शन के भेद से दो प्रकार का है । कर्मफल चेतना, कर्म चेतना और ज्ञान चेतना की अपेक्षा तीन प्रकार का है। अपना उत्पाद व्यय और भव्य को अपेक्षा तीन भेद रूप है । चार गतियों में भ्रमण करने वाला होने से चार भेद वाला है । औदमिक श्रादि पाँच भावों से युक्त होने के कारण पाँच भेद है । भवान्तर में जाते समय पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण ऊपर और नीचे इस तरह छह अप कर्म से युक्त होने से छ: दिशाओं में गमन करने के कारण छह प्रकार का है। अस्ति नास्ति यादि सात अंगों से युक्त होने के कारण सात भेद रूप | ज्ञानावरणादि कर्मों के प्रास्त्र से युक्त होने की अपेक्षा आठ प्रकार का है। जीव अजीवादि नी पदार्थ रूप परिणमन होने के कारण नौं प्रकार का है । पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, प्रत्येक वनस्पति कायिक, साधारण वनस्पति कायिक, द्वीन्द्रिय जाति, श्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति तथा पंचेन्द्रिय जाति के भेद से दस प्रकार का है।
चौथा समवायांग - एक लाख चौसठ हजार पदों के द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों के समदाय का वर्णन करता है । वह समवाय चार प्रकार का है। द्रव्य क्षेत्र काल और भाव । द्रव्य समवाय को अपेक्षा धर्मास्तिकाय, श्रधर्मास्तिकाय लोकाकाश और एक जीव के प्रदेश समान है। क्षेत्र समवाय की अपेक्षा प्रथम नरक के प्रथम पटल का सीमन्तकविल, मनुष्य लोक, प्रथम स्वर्ग के प्रथम पटल का ऋजुविमान और सिद्ध क्षेत्र इन सबका विस्तार समान है । काल की अपेक्षा उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल समान हैं। दोनों का प्रमाण दस कोड़ा कोड़ि सागर है। भाव को अपेक्षा क्षायिक सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और यथाख्यात चारित्र समान है। इस प्रकार समानता की अपेक्षा जीवादि पदार्थों के समवाय का कथन समवायांग में किया गया है ।
व्याख्या प्रज्ञप्ति प्रंग- दो लाख अट्ठाईस हजार पदों के द्वारा 'क्या जीव है अथवा नहीं है' इत्यादि रूप से साठ हजार प्रश्नों का व्याख्यान करता है । ज्ञातृधर्मकथा नाम का छठा प्रंग पाँच लाख छप्पन हजार पदों के द्वारा तीर्थंकरों की धर्म देशना का सन्देह को प्राप्ति गणधरदेव के सन्देह को दूर करने को विधि का तथा अनेक प्रकार की कथा उपकथाओं का वर्णन करता है ।
सातवाँ उपासकाध्ययनांग - ग्यारह लाख सत्तर हजार पदों के द्वारा श्रावकों के भ्राचार का वर्णन करता है । अन्तकृद्दशांग नाम का आठवां अंग तेईस लाख अट्ठाईस हजार पदों के द्वारा एक-एक तीर्थकर कं तीर्थ में दारुण उपसर्मी को सहन कर निर्वाण को प्राप्त हुए दस-दस अन्तकृत केवलियों का कथन करता है । अनुसरोपपादिक दशा - नाम का नौवां अंग बानवे लाख चालीस हजार पदों के द्वारा एक-एक तीर्थ में नाना प्रकार के दारुण उपसगों को सहन कर विराजमान पांच अनुत्तर विमानों में जन्मे हुए दस-दस मुनियों का वर्णन करता है । जैसे वर्धमान तीर्थंकर के तीर्थ में ऋषिदास घन्य सुनक्षत्र- कार्तिकं नन्द-नन्दन- शालिभद्र
१. विजय वैजयन्त जयंतापराजितसर्वार्थसिद्धाख्यानि पंचानुत्तराणि । तत्त्वा० वा० पृ० ५१