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________________ द्वादशांग धुत और अत्तबली अभय-वारिषेण और चिलात पुत्र इन दशमुनियों ने दारुण उपसगों को जीता है और अनुतर बिमान में उत्पन्न हए । प्रश्न व्याकरण-नामक दसवां अंग तिरानवे लाख सोलह हजार पदों के द्वारा माक्षेप-प्रत्याक्षेप पूर्वक यक्ति पूर्ण प्रश्नों का समाधान करता है । अथवा प्राक्षेपणी विक्षेपणी, सवेदनी और निवदनी इन चार कथाओं का वर्णन करता है। जो एकान्त दृष्टियों का निराकरण करके छ: द्रव्य पोर नौ पदार्थों का निरूपण करती है उसे प्राक्षेपणी कथा कहते हैं। जिसमें पहले पर सिद्धान्त के द्वारा स्वसिद्धान्त में दोप बतलाकर पीछे पर समय का खण्डन करके मानसिद्धान्त की स्थापना की जाती है उसे विक्षेपणी कथा कहते हैं। पुण्य के फल का वर्णन करने बाली कथा को संवेदनी कथा कहते हैं। पाप के फल का वर्णन करने वाली कथा निबेदनी कहलाती है। प्रान ध्याकरण अंग प्रश्न के अनुसार नष्ट, चिन्ता, लाभ, लाभ, सुख, दुख:, जीवित, मरण, जय, पराजय का भी वर्णन करता है। विपाकसूत्र-नाम का ग्यारहवां अंग एक करोड़ चौरामी लाख पदों द्वारा पुण्य-पाप रूप विवादों काअच्छे बुरे कर्मों के फलों का वर्णन करता है। इन समरत ग्यारह अंगों के पदों का जोड़ चार करोड़, पन्द्रह लाख दो हजार है (४१५०२००० है ।) बारहवां अंग दृष्टि प्रवाद है। इसमें तीन सौ सठ मतों का-क्रियावादियों, प्रक्रियावादियों अज्ञान दष्टियों और बैनयिक दृष्टियों का वर्णन और निराकरण किया गया है। दुष्टिवाद के पाँच अधिकार हैंपरिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्व और चूलिका । उनमें से परिकर्म के पांच भेद हैं-चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्राप्ति, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, द्वीपसमुद्रप्रज्ञप्ति, और व्याख्याप्रज्ञप्ति । चन्द्रप्रज्ञप्ति नामक परिकर्म छत्तीस लाख पाँच हजार पदों के द्वारा चन्द्रमा की आयु, परिवार, ऋद्धि, गति और चन्द्रबिम्ब को ऊँचाई मादि का वर्णन करता है। सूर्यप्रज्ञप्ति नाम का परिकर्म पाँच लाख तीन हजार पदों के द्वारा सूर्य की प्रायु, भोग, उपभोग, परिवार, ऋद्धि, गति, और सूर्य बिम्ब की ऊंचाई, दिन की हानि वृद्धि, किरणों का प्रमाण और प्रकाश आदि का वर्णन करना है। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति नाम का परिकर्म तीन लाख पच्चीस हजार पदों के द्वारा जम्बूद्वीप की भोगभूमि और कर्मभूमि में उत्पन्न हुए अनेक प्रकार के मनुष्य और तिर्यञ्चों का तथा पर्वत, हृद, नदी, बेदिका, क्षेत्र, पावास, अकुत्रिम जिनालय आदि का वर्णन करता है। द्वीपसमुद्रप्राप्ति नाम का परिकर्म बावन लाख छत्तीस हजार पदों के द्वारा उद्धारपल्य के प्रमाण से द्वीप और समुद्रों के प्रमाण का तथा द्वीप-सागर के अन्तर्भूत अन्य अनेक बातों का वर्णन करता है। व्याख्या प्रज्ञप्ति नाम का परिकम चौरासी लाख छत्तीस हजार पदों के द्वारा पुद्गल धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य का तथा भव्य और अभव्य जीवों का वर्णन करता है। दृष्टिवाद अंग का सूत्र नाम का अर्थाधिकार अठासी लाख पदों के द्वारा जीव प्रबन्धक है, अवलेपक है, अकर्ता है, अभोक्ता है, निर्गण है, व्यापक है, अणप्रमाण है, नास्ति स्वरूप है, अस्तिस्वरूप है, पृथिवी प्रादि पंचभूतों से जीव उत्पन्न हुना है, चेतना रहित है, ज्ञान के बिना भी सचेतन है, नित्य ही है. अनित्य ही है, इत्यादिरूप से क्रियावाद, प्रक्रियावाद अज्ञानवाद, ज्ञानवाद और वैनयिकबाद आदि तीन सौ सठ मतों का वर्णन पूर्वपक्षरूप से करता है। प्रथमानुयोग-नाम का तीसरा अर्थाधिकार पांच हजार पदों के द्वारा चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रर्वी, नौ प्रतिनारायण के पुराणों का तथा जिनदेव विद्याधर, चक्रवर्ती, चारणऋद्धिधारी मुनि और राजा प्रादि के वंशों का वर्णन करता है। चूलिका के पांच भेद है-जलगता, थलगता, मायागता, रूपगता, और आकाशगता । जलगता चूलिका दो, करोड नौ लाख नबासी हजार दो सौ पदों के द्वारा जल में गमन तथा जल स्तम्भन के कारण भूत मंत्र-तंत्र तपश्चर्या १. अनुतरेस्वोपपादिका अनुत्तरोपादिका :--ऋषिदास-पन्य-सुनक्षत्र-कार्तिक-नन्द-नन्दन-शालिभदअभय--वारिषेण -चिलातपुत्र इत्येते दश वर्धमानतीर्थकरतीर्थे । एवं वृषभादीनां त्रयोविंशतेस्तीर्थवन्येन्ये च दश दशानगारा दश दश दारुणानुरसर्गानिजित्य विजयाधुनुत्तरेषूत्पन्न इत्येवमनुत्तरोपपादिकाः दशास्या वय॑न्त इत्यनुत्तरोफ्यादिक दशा। -तत्त्वा० वा. पृ०७३
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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