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________________ --. .- ----- - - बलाकपिच्छ बलापिच्छ कोण्ड कून्दान्वयोगपिच्छाचार्य (उमास्वाति) के शिष्य थे। ये बड़े विद्वान तपस्वी थे। उनकी कीति भुवनत्रय में व्याप्त थी। उनके गुणनन्दी नाम के शिष्य थे, जो चारित्र चक्रेश्वर और तर्क व्याकरणादि शास्त्रों में निपुण थे। इनका समय संभवतः दूसरी-तीसरी शताब्दी है। दूसरी सदी के प्राचार्य ल्लंगोवाडिगल यह चेर राजकुमार मंगोट्टवन का भाई था और जैनधर्म का अनुयायी था पर इसका भाई शेंगोट्टवन शवधर्म अनुयायी था । इसकी रचना तमिल भाषा का प्रसिद्ध ग्रन्थ शिलप्पदि कारम्' है । उस समय वहां धार्मिक सहनशीलता थी और राजघरानों तक में जैनधर्म का प्रवेश हो चुका था। इस ग्रन्थ का रचना काल ईसा की दूसरी शताब्दी है। इस ग्रन्थ में तथा मणिमेखले में तत्कालीन द्रविड़ संस्कृति का स्पष्ट चित्र देखा जा सकता है। इस काव्य में जैन आचार विचारों के तथा जैन विद्या केन्द्रों के उल्लेख से पाठकों के मन पर निस्सन्देह प्रभाव पड़े विना नहीं रहता, कि द्रविड़ों का बहभाग उस समय जैन धर्म को अपनाये हुए था। शिलप्पादि कार की कथा बड़ी रोचक मार्मिक और ऐतिहासिक है। शिलप्पदिकारम की प्रमुख पात्रा कौन्ती एक जैन साध्वो है, और जैन धर्म को संपालिका है, जिन देव और उनके सिद्धान्तों पर उसकी बड़ी प्रास्था है, वह एक स्थान पर कहती है: जिसने राग, द्वेष और मोह को जीत लिया है, मेरे कर्ण उसके अतिरिक्त अन्य किसी का भी उपदेश नहीं सुनना चाहते, मेरी जिह्वा काम जेसा भगवान के १ हजार पाठ १००८ नामों के सिवाय अन्य कुछ भी कहना नहीं चाहती। मेरी प्रांखें उस स्वयम्भू के चरण युगल के सिवा अन्य कुछ नहीं देखना चाहतीं । मेरे दोनों हाथ अर्हन्त के सिवा किसी अन्य के अभिवादन में कभी नहीं जुड़ सकते । मेरा मस्तक फूलों के ऊपर चलने वाले प्रहन्त के सिवाय अन्य कोई फूल धारण नहीं कर सकता । मेरा मन अर्हन्त भगवान के वचनों के सिवा अन्य किसी में भी नहीं रमता । कर्ता ने अन्य धर्मों के सम्बन्ध में भी अच्छा कहा है । यद्यपि ग्रन्थ में विविध संस्कृतियों और धर्मों का चित्रण है, किन्तु उसका पक्षपात जैनधर्म की पोर है। ग्रन्थ में अहिंसादि सिद्धान्तों की प्रच्छी विवेचना को है। कर्ता का दृष्टिकोण उदार मौर शैली सुन्दर है। इस कारण यह अन्य सभी को रुचिकर है। १. श्री गृपिच्छमुनिपस्य बलाकपिच्छः शिष्योऽजनिष्ट भुवनश्यतिकीति । चारिपचर खिलावनिपात मौलि-मालाशिलीमुखविराजितपादपद्यः ।। ---जैनलेख सं०माग १पृ०७२
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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