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________________ द्वादशांग सूत्र और श्रुतकेवली YK पदों के द्वारा पाठ प्रकार के व्यवहारों का, चार प्रकार के बीजों का, मोक्ष को ले जाने वालो क्रिया का और मोक्ष के सुखों का वर्णन करता है । अङ्ग बाह्यश्रुत बाह्य श्रुतज्ञान के चौदह भेद हैं-सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, बन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवेकालिक, उत्तराध्ययन, कल्प व्यवहार, कल्प्याकल्प्य, महाकल्प्य, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निषिद्धिका । सामायिक नाम का यङ्ग बाह्य, नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन छह भेदों के द्वारा समताभाव के विधान का वर्णन करता है। चतुर्विंशतिस्तव उस काल सम्बन्धी चौबीस तीर्थकरों की वन्दना का विधान और उसके फल का वर्णन करता है । वन्दना नाम का अङ्गबाह्य एक तीर्थंकर और उस एक तीर्थकर के जिनालय सम्बन्धी वन्दना का निर्दोष रूप से वर्णन करता है। जिसके द्वारा प्रमाद से लगे हुए दोषों का निराकरण किया जाता उसे प्रतिक्रमण कहते हैं। वह देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, ईर्यापथिक और प्रोतमाथिक के भेद से सात प्रकार का है। प्रतिक्रमण नाम का अङ्ग बाह्य दुषमादिकाल और छह संहननों में से किसी एक संहन से युक्त स्थिर तथा अस्थिर स्वभाव वाले पुरुषों का आश्रय लेकर इन सात प्रकार के प्रतिक्रमणों का वर्णन करता है। वैनयिक नामक श्रंग बाह्य ज्ञानविनय दर्शनविनय, चारित्रविनय, तप विनय और उपचार विनय इन पांच प्रकार विनयों का वर्णन करता है। कृतिकर्म - नामक अंग बाह्य, अरहंत, सिद्ध, ग्राचार्य उपाध्याय और साधु की पूजा विधि का कथन करता है । देश वैकालिक अनंग साधुओं के आचार और भिक्षाटन का वर्णन करता है। उत्तराध्ययन चार प्रकार के उपसर्ग और बाईस परीषहों के सहने के विधान का और उनके सहन करने के फल का तथा इस प्रश्न का यह उत्तर होता है। इसका वर्णन करता है। ऋषियों के करने योग्य जो व्यवहार हैं उनके स्खलित हो जाने पर जो प्रायश्चित होता है उन सबका वर्णन कल्प व्यवहार करता है। साधुओं के और साधुओं के जो व्यवहार करने योग्य हैं और जो व्यव हार करने योग्य नहीं हैं-प्रकरणीय हैं। उन सब का द्रव्य क्षेत्र, काल और भाव का आश्रय लेकर कल्प्पाकल्प्य कथन करता है। दीक्षा ग्रहण, शिक्षा, आत्म संस्कार, सल्लेखना और उत्तम स्थापना रूप आराधना को प्राप्त हुए साधुओं के जो करने योग्य है, उसका द्रव्य क्षेत्र, काल और भाव का आश्रय लेकर महाकल्प्य कथन करता है । पुण्डरीक अंग बाह्य भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क, कल्पवासी, और वैमानिक सम्बन्धी देव, इन्द्र, सामानिक, आदि में उत्पत्ति के कारण भूत दान, पूजा, शील, तप, उपवास, सम्यक्त्व और श्रकाम निर्जरा का तथा उनके उपपाद स्थान और भवनों का वर्णन करता है। महापुण्डरीक उन्हीं भवनवासी आदि देवों और देवियों में उत्पत्ति के कारणभूत तप और उपवास प्रादि का वर्णन करता है। निषिद्धिका अनेक प्रकार की प्रायश्चित विधि का वर्णन करता है । भगवान महावीर के मोक्ष जाने के बाद तीन अनुबद्ध केवली और पांच श्रुत केवली हुए हैं। इनमें भद्र बाहु अन्तिम त केवल थे। उस समय तक यह अंग त घपने मूलरूप में चला आया है। इसके पश्चात् बुद्धि बल मौर धारणा शक्ति के क्षीण होते जाने से तथा श्रंग श्रुत को पुस्तकारूढ़ किये जाने की परिपाटी न होने से क्रमशः वह विच्छिन्न होता गया । इस इरह एक ओर जहाँ यंग श्रुत का प्रभाव होता जा रहा था, वहाँ दूसरी ओर श्रुत परम्परा को अवच्छिन्न बनाये रखने के लिये और उसका सीधा सम्बन्ध भगवान महावीर की वाणी से बनाये रखने के लिए भी प्रयत्न होते रहे हैं। अंग श्रुत के बाद दूसरा स्थान अंग बाह्य श्रुत को मिलता है। इनके भेदों का संक्षिप्त परि चय पहले लिख आये हैं ।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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