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________________ पांच श्रुत केवली १. विष्णुनन्दि (प्रथम श्रुत केवली) जम्बूस्वामी ने केवली होने से पहले विष्णुनन्दि आदि प्राचार्यों को द्वादशांग का व्याख्यान किया। और केवली होकर अड़तीस वर्ष पर्यन्त जिन शासन का उद्योत किया । अन्तिम केवली जम्बू स्वामी के निर्वाण प्राप्त करने पर सकल सिद्धान्त के ज्ञाता विष्णु प्राचार्य हुए। जो चतुर्दश पूर्वधारी और प्रथम श्र न केवली थे । तप के अनुष्ठान से जिनका शरीर कृश हो गया था। और क्रोध, मान, माया और लोभादि चारों कषाएं जिनकी उपसमित हो गई थीं । जो ज्ञान-ध्यान और तप में निष्ठ रहते हुए भी संघ का निर्वहन करते थे। पाप में संघ के संचालन की अगवं शक्ति थी। आपके तप और तेज का प्रभाव भी उसमें सहायक था। आपकी निर्मलता और सौम्यतादि गुण स्पर्धा की वस्तु थे । साधुनों के निग्रह-अनुग्रह में प्रवीण, कठोर तपस्वी थे। संघस्थ मुनियों पर आपका प्रभाव उन्हें अपने कर्तव्य से विचलित नहीं होने देता था। पापको प्रशान्त मुद्रा और हंस मुख साधु संघ पर अपना प्रभाव अंकित किये हुए था।आपने बीस वर्ष तक विभिन्न देशों में ससंघ विहार कर धर्मोपदेश द्वारा जगत का कल्याण किया । और अन्त में नन्दिमित्र को द्वादशांगध त और संघ का सब भार समर्पण कर देव लोक प्राप्त किया। २. मन्दिमित्र-(द्वितीय श्रुत केवली) महामुनि नन्दिमित्र कठोर तपश्चरण द्वारा आत्म-साधना में संलग्न रहते थे। ध्यान और अध्ययन दोनों कार्यों में अपना समय व्यतीत करते थे। से गमागत उपसर्ग और परिष हों से नहीं घबराते थे। प्रत्युत अपने प्रात्मध्यान में अत्यन्त संलग्न हो जाते थे। संघ में वे अपने सौम्यादि गुणों के कारण महत्ता को प्राप्त थे। प्राचार्य विष्णुनन्दि के दिवंगत होने से पूर्व द्वादशांग का व्याख्यान नन्दिमित्र को किया था और संघ का कुल भार पापको सौंप दिया था। नन्दिमित्र चतुर्दश पूर्वधर श्रुतकंवली हुए। आपने २० वर्ष तक संघ सहित विविध देशों तथा नगरों में विहार कर वीर शासन का प्रचार किया। और जनता को धर्मोपदेश द्वारा कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। अन्त में आपने अपना संघ भार अपराजिताचार्य को सौंपकर देव लोक प्राप्त किया। ३. प्राचार्य अपराजित (तृतीय श्रुत केवली) ___ आचार्य अपराजित ने तपश्चरण द्वारा जो प्रात्म-शोधन किया, उससे कषायमल का उपशम हो गया। आपकी सौम्य प्रकृति और मिष्ट संभाषण संघ में अपनी खासविशेषता, रखता था। ध्यान, अध्ययन और अध्यापन ही पाप के सम्बल थे। यद्यपि आप शरीर से दुर्बल थे, किन्तु आत्मबल बढ़ा हुआ था। वे पंच प्राचारों का स्वयं पाचरण करते थे, और अन्य माधुमों से कराते थे। निग्रह और अनुग्रह में चतुर थे । नन्दिमित्राचार्य ने देवलोक प्राप्त करने से पूर्व ही संघ का सब भार अपराजित को सौंप दिया था। पश्चात् वे दिवंगत हुए। प्राचार्य अपराजित वाद करने में प्रत्यन्त निपुण थे, कोई उनसे विजय नहीं पा सकता था। अतएव वे सार्थक नाम के धारक थे। और द्वादशांग के वेत्ता थु त केवली थे। संघ का सब भार वहन करते हुए उन्होंने संघ सहित विविध देशों, नगरों, और ग्रामों में विहार कर धर्मोपदेश द्वारा जनता का कल्याण और वीर शासन के प्रचार एवं प्रसार में अपना पूर्ण सहयोग प्रदान किया। अन्त में आपने अपना सब संघ भार गोवर्द्धनाचार्य को सौंप कर दिवंगत हुए। ४. गोवनाचार्य (चतुर्दश पूर्वधर) चतुर्थश्रुतकेवली यह अपराजित श्रतकेवली के शिष्य थे। अन्तर्वाह्य ग्रन्थि के परित्यागी, महातपस्वी और चतुर्दश पूर्वपर, तथा अष्टांग महा निमित्त के वेता थे। वे एक समय ससंघ विहार करते हुए ऊर्जयन्तगिरि या रैवतक पर्वत के १. विष्णु पाइरियो सयल सिद्धतिप्रो उपसमिय चउकसायो रादिमित्ताइरियस समिप्पय दुबालसंगो देवलोअंगदो। --जय घवला पु०१पृ० ८५
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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