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पोच पुलकेवली भगवान नेमिनाथ जिनकी स्तुति वंदनादि कर बिहार करते हुए देवकोट्ट नगर में पाए। जो पोड़वधन देश में स्थित था। वहां उन्होंने मार्ग में कुछ बालकों को गोलियों से खेलते हुए देखा, उन बालकों में एक बालक तेजस्वो मोर प्रखर बुद्धि का था। उसने एक के ऊपर एक इस तरह चौदह गोलियां चढ़ा दी, उसे देख आचार्य श्री ने निमित ज्ञान से जान लिया कि यही बालक चतुर्दश पूर्वधर (अन्तिम श्रुतकेवली) होगा। उन्होंने उसका नाम और पिता का नामादि पूछा, बालक ने अपना नाम भद्रवाह और पिता का नाम सोमशर्मा बतलाया। प्राचार्य श्री ने पूछा, वत्स, तुम हमें अपने पिता के घर ले जा सकते हो, वह बालक तत्काल उन्हें अपने घर ले गया। सोमशमी ने प्राचार्य महाराज को देखकर बिनय से नमस्कार कर उच्चासन पर बैठाया। प्राचार्य श्री ने कहा कि तुम अपने इस पुत्र को मुझे विद्या पढ़ाने के लिए दे दोजिए। सोम शर्मा ने उनकी बात स्वीकार कर बालक को प्राचार्य श्री के साथ भेज दिया। गोवर्द्धनाचार्य ने भद्रबाह को अनेक विद्याएं सिखाई। और उसे निपुण विद्वान बना दिया। और कहा कि अब तुम विद्वान हो गए हो। अपने माता-पिता के पास जामो। भद्रबाहु अपने पिता के पास गया, उसे विद्वान देखकर वे हर्षित हुए। भद्रबाहु उनको अाज्ञा लेकर पुनः संघ में आ गया। और गुरु महाराज से दैगम्बरो दाक्षा ग्रहण कर तपश्चरण करना प्रारम्भ किया। प्राचार्य श्री ने भद्रबाहु को द्वादशांग का वेत्ता श्रुतविली बना दिया। और संघ का सव भार भद्रबाहु को सौंप दिया। गोवर्द्धनाचार्य ने स्वयं प्रात्म-साधना करते हुए अन्त में समाधि पूर्वक देवलोक प्राप्त किया।
भद्रबाह श्रुतकेवली के स्वर्गवास के पश्चात् भरतक्षेत्र में श्रनज्ञान रूप पूर्णचन्द्र प्रस्तमित हो गया। किन्तु उस समय ग्यारह अंगों और विद्यानुवाद पर्यन्त दृष्टिवाद अग के भी धारक विशाखाचार्य हुए। उन के बाद कालदोष से प्राग के चार पूर्वो के धारक भी व्युच्छिन्न हो गए।
प्रस्तुत विशाखाचार्य आचार आदि ग्यारह अंगों के और उत्पादपूर्वादि दश पूर्वो के घारक हुए । तथा प्रत्याख्यान प्राणवाय, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार इन चार पूर्वो के एक देश धारक हुए। इन्हीं को अध्यक्षता बारह हजार मुनियों का संघ भद्रबाहु के निर्देश से पाण्यादि देश की ओर गया था। और बारह वर्ष बाद दुभिक्ष की समाप्ति के बाद पुनः वापिस पा गया था। ५. भवबाहु पंचम श्रुतकेवलो
अन्तिम केवली जम्बू स्वामी के निर्माण के बाद दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों की गुर्वावलियां भिन्न-भिन्न हो जाती हैं। किन्तु श्रुतकेवली भद्रवाह के समय ये गंगा-यमुना के समान पुनः मिल जाती हैं। तथा भद्रबाह श्रुतकेवली के स्वर्गवास के पश्चात् जैन परम्परा स्थायी रूप से दो विभिन्न श्रोतों में प्रवाहित होने लगती है। अतएव भद्रवाह श्रुत केवली दोनों ही परम्परागों में मान्य हैं।
१ गोवर्धनश्वत पो.सावा चतुर्दशपूर्विरपाम् । निर्मनीकृतसाशो जानचन्दकरोकर : ॥ ऊजंपन्तं गिरि नेमि स्तोतुकामो महातपाः। बिहरन बनाम माग बोटीनगर मुदत्व जम् ।।१० भद्रबाहुकुमारं च म दृष्टया नगरे पुन : । उपयु परि कृर्षणं ताश्चतुर्दशवट्टकान् ॥ ११ पूर्वोक्तविणां मध्ये पञ्चमः श्रुतकेवली । समम्नपूर्वधारी च नानदिनमाभाजनः ।।१२॥ हरिषेण कथा. पृ० ३१७ २ नाना विषं ताः कृत्वा गोवर्धनगुरु स्तदा । सुरलोक जगामाशु देवीगीत मनोहरम् ॥२२
हरिषेण कथा० पृ० ३१७ १ गरि वसाहारियो तक्काले मायारादीण मेक्कारसाहमंगाणमुप्पायपुबाईणं दसहं पुवाणं च पञ्चरखामपाणवात्र-किरिया विशाल लोबिंदुसार पुन्नागसमेगदेसाणं च धारयो जादो। जयपवना पु० १५०८५