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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ पूर्व भव की कथा पूछता है, और सभी सकुशल गजपुर लोट आते हैं । भविष्यदत्त बहुत दिनों तक राज्य करता है भविष्यानुरूपा के चार पुत्र उत्पन्न होते है-सुप्रभ, कनकप्रभ, सूर्यप्रभ और सोमप्रभ, तथा तारा सुतारा नाम की दो पुत्रिया उत्पन्न होती हैं। सुमित्रा से धरणेन्द्र नाम का पुन मार तारा नाम को पुत्रो उत्पन्न होती है। कुछ समय बाद विमल बुद्धि मुनिराज गजपुर पाते हैं। भविष्यदत्त सपरिवार उनको वन्दना के लिए जाता है, और उनसे अपने पूर्वभव जानकर देह भोगों से विरक्त हो, सुप्रभ को राज्य देकर दीक्षा ले लेता है। और तपश्चरण द्वारा वैमानिक देव होता है और अन्त में मुक्ति का पात्र बनता है। रचना काल कवि धनपाल ने भविष्यदत्त कथा में रचना काल नहीं दिया, और न अपनी गुरु परम्पराही दी है। इससे रचना काल के निर्णय करने में बड़ो कठिनाई हो रही है। अन्य को सबसे प्राचीन प्रतिलिपि सं० १३६३ की उपलब्ध है. जैसा कि लिपि प्रशस्ति को निम्न पक्तियों से प्रकट है: संबच्छरे अधिकरा विक्कमेणं, ही एहि सेरणवदि तेरहसएणं। यरिस्सेय पुसण सेयम्मि पक्खे: तिही वारसी सोमि रोहिणी रिक्खे। सुहज्जोइमय रंगो बुद्ध पत्तो इमो सुन्दरो सत्थु सुह विणि समत्तो।।' यह शास्त्र सुसम्वतसर विक्रम तेरहसौ तेरानने में पीस मांस शुक्ल पक्ष द्वादशी सोमवार के दिन रोहिणी नक्षत्र में शुभ घड़ी शुभ दिन में लिख कर समाप्त हुना। उस समय दिल्ली में मुहम्मदशाह विन तुगलक का राज्य था। इस ग्रन्थ प्रतिको लिखाकर देने वाले दिल्ली निवासी हिमाल के पुत्र वाधु साह थे। जिन्होंने अपनी कीति के लिये अन्य अनेक शास्त्र उपशास्त्र लिखवाए थे। यह भविष्यदत कथा उन्होंने अपने लिये लिखवाई।' इससे यह अन्य सं० १३९३ (सन् १३३६ ई०) से बाद का नहीं हो सकता, किन्तु उससे पूर्व रचा गया है। डा. देवेन्द्र कुमार ने भूल से इस लिपि प्रशस्ति को जो अग्रवाल वंशो साहु वाधू ने लिखवाई थी। मूलग्रंथ का धनपाल की प्रशस्ति समझकर उसका रचना काल सं० १३६३ (सन् १३३६ ई०) निश्चिय कर दिया। यह एक महान् भूल है, जिसे उन्होंने सुधारने का प्रयत्न नहीं किया। जबकि डा. हर्मन जैकोबी ने इस ग्रंथ का रचना काल दशवीं शताब्दी से पूर्व माना जा सकता लिखा है, श्री दलाल और गुणेने भविसयत्त कहा की भूमिका में बतलाया है कि धनपाल को भविसयत्त कहा कि भाषा हेमचन्द से अधिक प्राचीन है। इससे स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ वि० १२ वीं शताब्दी से पूर्व की रचना है। फिर भी डा. देवेन्द्र कुमार ने विक्रम सं०१२३० में रची जाने वाली विवध श्रीधर की भविसयत्त कहा से तुलना कर धनपाल की कथा को अर्वाचीन बतलाने का दुस्साहस किया है। जबकि स्वयं उसके भाषा साहित्य को शिथिल घटिया दर्जे का माना है, और लिखा है कि-"इन वर्णनों को देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि काव्य कतित्व शक्ति से भरपुर है। पर कल्पनात्मक, बिम्बार्थ योजना और अलंकरणता तथा सौन्दर्यानुभूति की जो झलक हमें धनपाल की भविष्यदत्त कथा में लक्षित होती है, वह इस काव्य (विबुध श्रीधर की कथा) में नहीं है।" "विवुध श्रीधरकी भविष्यदत्त कथा की भाषा चलती हुई प्रसाद गुण युक्त है।" (देखो भविसयत्त कहा तथा अपभ्रंश कथा काव्य पृ० १५८) जबकि धनपाल को भविसयत्त कहा की भाषा प्रौढ, अलंकरण मोर बिम्बार्य योजनामादि को लिये हुए है। भाषा प्रांजल और प्रसाद गुण से युक्त है। कवि धनपाल ने ग्रन्थ में यष्ट मूल गुणों को बतलाते हुए मद्य मांस और मधु के साथ पंच उदबर फलोंके त्याग को प्रष्ट मूल गुण बतलाया है। यथा-महुमज्जू मंसु पंचबराई खज्जति ण जम्मतरसयाई। (भविसयत कहा १६-८) दशवीं शताब्दी से पूर्व प्रष्टमूल गुणों में पंच उदम्बर फलों का त्याग शामिल नहीं था, किन्तु पंचाणुव्रत - - - - - १ इहत्ते परते सुहायार हेज, तिणे लिहित सुअपंचमी णियह है । अनेकान्त वर्ष २२ किरण १ २ श्री दलाल और गुणे द्वारा सम्पादित गायकवाट ओरियन्टल सीरोज प्रथांक ०२०, १९२३ ई० में प्रकाशित ।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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