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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
'अंबाहय कंचौपुर विरत्त, जहिं भमई भव्य भत्तिहि पसत्त । जहि बल्लहराएँ बल्लहेण, काराविउ कित्तण बुल्लहेण । जिण पडिमा लकिज गम्छमाण, केण बियंभिउ सुरविमाण । जहि रामणंवि गुणमणि णिहारा जयकिसिमहाकित्ति वि पहाणु।
इय तिणि विपरमय-माई-मयंद-मिच्छत-विडबिमोडणगई।' उक्त पचों में उल्लिखित रामनन्दी कौन हैं, और उनकी गुरु परम्परा क्या है और जयकोति महाकोति से से इनका क्या सम्बन्ध है ? यह प्रज्ञात है। ये तीनों विद्वान भी नयनन्दी के समकालीन हैं। रामनन्दो प्राचार्य थे। इनके शिष्य बालचन्द ने कवि से सकलविधि-विधान बनाने का संकेत किया था। ऐतिहासिक दृष्टि से इन विद्वानों के सम्बन्ध में विचार करना आवश्यक है। प्राकृत श्रुतस्कन्ध के कर्ता, ब्रह्म हेमचन्द्र के गुरु भो रामनन्दी हैं। और माणिक्य नन्दी के गुरु भी रामनन्दो हैं । ये दोनों भिन्न-भिन्न विद्वान हैं या अभिन्न हैं, यह विचारणीय है।
प्रमाचन्द्र माणिक्यनन्दी के अन्य विद्या शिष्यों में प्रभाचन्द्र प्रमुख रहे हैं । वे उनके 'परीक्षामुख' नामक सूत्र-ग्रन्थ के कुशल टीकाकार भी हैं । दर्शन शास्त्र के अतिरिक्त वे सिद्धान्त के भी विद्वान थे। प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने उक्तधारा नगरी में रहते हुए केवल दर्शन शास्त्र का प्रध्ययन ही नहीं किया ; प्रत्युत धाराधिपभोज के द्वारा प्रतिष्ठा पाकर अपनी विद्वत्ता का विकास भी किया। साथ ही विशाल दार्शनिक ग्रन्थों के निर्माण के साथ अनेक ग्रन्थों की रचना की है । 'प्रमेय कमल मार्तण्ड' (परीक्षामुख टीका) नामक विशाल दार्शनिक अन्य सुप्रसिद्ध राजा भोज के राज्यकाल में ही रचा गया है । और 'न्याय कुमुदवन्द्र' (लघीयत्रय टीका) पाराधना-गद्य कथाकोश पुष्पदन्त के महापुराण (ग्रादिपुराण-उत्तरपुराण) पर टिप्पण-ग्रन्थ तत्वार्य वृत्ति पद टिप्पण, शब्दाम्भोज भास्कर समाधितंत्र टीका ये सब ग्रन्थ राजा जयसिंह देव के राज्य काल में रघे गये हैं। शेष ग्रन्थ प्रवचन सरोज मास्कर, पंचास्तिकायप्रदीप, प्रारमानुशासन तिलक, क्रियाकलाप टीका, रत्नकरण्ड श्रावकाचार टीका, पृहत्स्वयंभूस्तोत्र टीका, तथा प्रतिक्रमणपाठ टीका, ये सब प्रन्थ कब और किसके राज्यकाल में रचे गए हैं ये इन्हीं प्रभाचन्द्र को कृति है या अन्य की यह विचारणीय है। इनमें प्रवचन सरोजभास्कर और पचास्तिकाय प्रवीप तो इन्हीं प्रभाचन्द्र की कति हैं। शेष के सम्बन्ध में सप्रमाण निर्णय करने की जरूरत है कि इन्हीं की कृति है। या किसी अन्य प्रभाचन्द्र की।
ये प्रभाचंद्र वही ज्ञात होते हैं जिनका श्रवण बेलगोल के शिलालेख ने० ४० के अनुसार मूलसंघान्तर्गत नन्दीगण के भेदरूप देशोयगण के गोल्लाचार्य के शिष्य एक पविकर्ण कौमारवती पप्रनन्दी सैद्धांतिक का उल्लेख है जो कर्णवेयसंस्कार होने से पूर्व ही दीक्षित हो गए थे। उनके शिष्य (पौर कुलभूषण के सधर्मा एक प्रभाचन्द्र का उल्लेख पाया जाता है जिसमें कुलभूषण को चारित्रसागर और सिद्धान्त के पारगामी बतलाया गया है। पौर प्रभाचन्द्र को शब्दाम्भोरुह भास्कर तथा प्रथित तर्क-अन्धकार प्रकट किया है। इस शिलालेख में मुनि कुलभूषण की शिष्य परम्परा का भी उल्लेख निहित है।
प्रषिकर्णादिक पपनदी सैद्धान्तिकाल्योऽजनियस्य लोके। कौमारवेषवासिता प्रसिरिजॉयात सज्जानिषिः सबीरः।। सपिछष्यः कुलभूषणाख्या यतिपश्चारित्रवार मिधिःसिद्धान्ताम्युषि पारपो नतविनेयस्तत्सवों महान् । शवाम्भोरुह भास्करः प्रथित सम्पकारः प्रभाचदरल्या मुमिराज पंरितबर:श्रीकुम्बकुम्बाम्बयः ।। तस्य श्री कुलभूषणाल्य सुमनेशिष्यो विनयस्तुत:
सवृत्तः कुलचनदेव भूमिपस्सिबापत विद्यानिधिः ।। श्रवण वेल्गोल के ५५ शिलालेख'मैं मूलसंध देशीयगण के देवेन्द्रसैद्धान्तिक के शिष्य, पतुमख देव के शिष्य गोपनन्दी पौर इन्हीं गोपनन्दी के सषर्मा एक प्रभाचन्द्र का उल्लेख भी किया गया है, जो प्रभाचन्द्र पारा